"बादल / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’" के अवतरणों में अंतर
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सखी ! | सखी ! | ||
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बादल थे नभ में छाये | बादल थे नभ में छाये | ||
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बदला था रंग समय का | बदला था रंग समय का | ||
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थी प्रकृति भरी करूणा में | थी प्रकृति भरी करूणा में | ||
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कर उपचय मेघ निश्चय का।। | कर उपचय मेघ निश्चय का।। | ||
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वे विविध रूप धारण कर | वे विविध रूप धारण कर | ||
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नभ–तल में घूम रहे थे | नभ–तल में घूम रहे थे | ||
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गिरि के ऊँचे शिखरों को | गिरि के ऊँचे शिखरों को | ||
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गौरव से चूम रहे थे।। | गौरव से चूम रहे थे।। | ||
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वे कभी स्वयं नग सम बन | वे कभी स्वयं नग सम बन | ||
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थे अद्भुत दृश्य दिखाते | थे अद्भुत दृश्य दिखाते | ||
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कर कभी दुंदभी–वादन | कर कभी दुंदभी–वादन | ||
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चपला को रहे नचाते।। | चपला को रहे नचाते।। | ||
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वे पहन कभी नीलाम्बर | वे पहन कभी नीलाम्बर | ||
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थे बड़े मुग्ध कर बनते | थे बड़े मुग्ध कर बनते | ||
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मुक्तावलि बलित अघट में | मुक्तावलि बलित अघट में | ||
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अनुपम बितान थे तनते।। | अनुपम बितान थे तनते।। | ||
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बहुश: –खन्डों में बँटकर | बहुश: –खन्डों में बँटकर | ||
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चलते फिरते दिखलाते | चलते फिरते दिखलाते | ||
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वे कभी नभ पयोनिधि के | वे कभी नभ पयोनिधि के | ||
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थे विपुल पोत बन पाते।। | थे विपुल पोत बन पाते।। | ||
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वे रंग बिरंगे रवि की | वे रंग बिरंगे रवि की | ||
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किरणों से थे बन जाते | किरणों से थे बन जाते | ||
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वे कभी प्रकृति को विलसित | वे कभी प्रकृति को विलसित | ||
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नीली साड़ियां पिन्हाते।। | नीली साड़ियां पिन्हाते।। | ||
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वे पवन तुरंगम पर चढ़ | वे पवन तुरंगम पर चढ़ | ||
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थे दूनी–दौड़ लगाते | थे दूनी–दौड़ लगाते | ||
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वे कभी धूप छाया के | वे कभी धूप छाया के | ||
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थे छविमय–दृश्य दिखाते।। | थे छविमय–दृश्य दिखाते।। | ||
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घन कभी घेर दिन मणि को | घन कभी घेर दिन मणि को | ||
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थे इतनी घनता पाते | थे इतनी घनता पाते | ||
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जो द्युति–विहीन कर¸ दिन को | जो द्युति–विहीन कर¸ दिन को | ||
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थे अमा–समान बनाते।। | थे अमा–समान बनाते।। | ||
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19:05, 31 मार्च 2011 के समय का अवतरण
सखी !
बादल थे नभ में छाये
बदला था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करूणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।।
वे विविध रूप धारण कर
नभ–तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।।
वे कभी स्वयं नग सम बन
थे अद्भुत दृश्य दिखाते
कर कभी दुंदभी–वादन
चपला को रहे नचाते।।
वे पहन कभी नीलाम्बर
थे बड़े मुग्ध कर बनते
मुक्तावलि बलित अघट में
अनुपम बितान थे तनते।।
बहुश: –खन्डों में बँटकर
चलते फिरते दिखलाते
वे कभी नभ पयोनिधि के
थे विपुल पोत बन पाते।।
वे रंग बिरंगे रवि की
किरणों से थे बन जाते
वे कभी प्रकृति को विलसित
नीली साड़ियां पिन्हाते।।
वे पवन तुरंगम पर चढ़
थे दूनी–दौड़ लगाते
वे कभी धूप छाया के
थे छविमय–दृश्य दिखाते।।
घन कभी घेर दिन मणि को
थे इतनी घनता पाते
जो द्युति–विहीन कर¸ दिन को
थे अमा–समान बनाते।।