"नीली धारियों वाला स्वेटर / गोविन्द माथुर" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गोविन्द माथुर }} {{KKCatKavita}} <poem> कैसी भी रही हो ठण्ड ठि…) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | {KKGlobal}} | + | {{KKGlobal}} |
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=गोविन्द माथुर | |रचनाकार=गोविन्द माथुर | ||
− | }} | + | }}{{KKAnthologySardi}} |
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> |
01:12, 1 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
कैसी भी रही हो ठण्ड
ठिठुरा देने वाली या गुलाबी
एक ही स्वेटर था मेरे पास
नीली धारियों वाला
बहिन के स्वेटर बुनने से पहले
किसी की उतरी हुई जाकेट
पहनता था मैं
जाकेट में गर्माहट थी
पर जाकेट पहन कर
ख़ुशी नहीं मिलती थी मुझे
एक उदासी छा जाती थी
मेरे चेहरे पर
बहिन मेरे चेहरे पर छाई
उदासी पढ़ कर
खुद भी उदास हो जाया करती थी
बहिन ने थोड़े-थोड़े पैसे बचा कर
ख़रीदे सफ़ेद नीले ऊन के गोले
एक सहेली से मांग लाई सलाई
किसी पत्रिका के बुनाई विशेषांक से
सीखी बुनाई
दो उल्टे एक सीधा
एक उल्टा दो सीधे डाले फंदे
कई दिनों तक नापती रही
मेरा गला और लम्बाई
गिनती रही फंदे
बदलती रही सलाई
ठिठुराती ठण्ड आने से पहले
एक दिन बहिन ने
पहना दिया मुझे नया स्वेटर
बहिन की ऊंगलियों की ऊष्मा
समां गई थी स्वेटर में
मेरे चेहरे पर आई चमक
देख कर खुश थी बहिन
मेरा स्वेटर देख कर
लड़कियाँ पूछती थी
कलात्मक बुनाई के बारे में
बहिन के ससुराल जाने बाद भी
कई वर्षों तक पहनता रहा मैं
नीली धारिओं वाला स्वेटर
उस स्वेटर जैसी ऊष्मा
फिर किसी स्वेटर में नहीं मिली
उस स्वेटर की स्मृति में
आज भी ठण्ड नहीं लगती मुझे