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"ठंड का कारण / तरुण भटनागर" के अवतरणों में अंतर

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अगर -
 
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01:12, 1 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

अगर -
रक्त बफर बन जाता,
हृदय रूक जाता हाइपोथर्मिया से,
गल जातीं उंगलियाँ,
अकड़कर, कड़कड़ा जाता पूरा शरीर,

क्या तब भी,
सूरज निर्दोष बरी हो जाता?
अगर तेज़ ठण्ड,
दुबकाए रखती रजाई में,
और चुपके से हो जाता सबेरा,
तब -
पाप कितना यतीम होता।
शरीर की गर्मी को रोके है -
चमड़े का जैकेट,
शरीर और जैकेट के बीच।
पर मेरे सामने वाली बस्ती के लोग,
ठिठुर कर कब के मर गए,
मुझे यकीन है,
अगर ना पहनता जैकेट,
तब देह की गर्मी उस बस्ती तक चली जाती,
और वे न मरते।

शाम और सुबह के,
कँपकँपाते धुंधलके में,
अपने को छिपा चुका है -
संसार का एक लावारिस टुकड़ा,
तो क्या अब भी -
वसुधैव कुटुम्बकम।
शरीर के लिए -
पानी को गरम होना पड़ा,
पानी के लिए एक शर्त,
जो बाल्टी में इमल्शन राड के साथ न होता तो -
क्या बहता होता नदी में?

धूप का धोखा,
जो उनसे,
परिचय से लेकर सहवास तक,
लगातार बढ़ा है।
एक बात जो चुप्पों के पीछे दबी है।
पीठ पर छुरे सी धूप... ।
पर खिलखिलाते हैं,
विण्टर के फूल -
क्राइसेन्थेमम, पापी, नास्टरेशियम...।
अगर माली न होता, तब भी,
वे बगीचे से नहीं भागते,
अंगद के पाँव ...।

सुने हैं,
ठण्ड के कारण -
पृथ्वी का झुकाव, सूरज का सरकना...।
पर इस बार ठण्ड आई थी,
ढेर-सी बातों और प्रश्नों,
पर से गुजरकर,
उन्हें वैसा ही छोड़ जाने,
अगली ठण्ड के लिए।
वह न आती तो,
बदल जातीं -
ढेर-सी बातें और प्रश्न।