भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कहीं पे धूप / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=दुष्यंत कुमार | |
+ | |संग्रह=साये में धूप / दुष्यंत कुमार | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए | ||
+ | कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए । | ||
− | + | जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा | |
+ | बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए । | ||
− | + | खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को | |
− | + | सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए । | |
− | + | दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों | |
− | + | तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए । | |
− | + | लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो | |
− | + | शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए । | |
− | + | ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है | |
− | + | यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए । | |
− | + | </poem> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है | + | |
− | + |
11:29, 4 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।
लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।
ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।