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(नया पृष्ठ: <poem>बस्ती गाँव नगर में हैं घर के दुश्मन घर में हैं जिनसे माँग रहा हू…)
 
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22:15, 5 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

बस्ती गाँव नगर में हैं
घर के दुश्मन घर में हैं

जिनसे माँग रहा हूँ घर
वो बसते पत्थर में हैं

मौत हमारी मंजिल है
हम दिन रात सफ़र में हैं

जितने सुख हैं दुनिया के
फकत ढाई आखर में हैं

ढूँढा उनको कहाँ कहाँ
जो मेरे अन्तर में हैं

इक आँसू की बूँद से वो
मेरी चश्मे तर में हैं

सूरज ढूँढ रहा उनको
वो लेकिन बिस्तर में हैं

मेरी खुशियाँ रिश्तों में
उनके सुख जेवर में हैं

भूखे सोये फिर बच्चे
माँ पापा दफ्तर में हैं

पार जो करते थे सबको
वो खुद आज भवंर में हैं

मेरे साथ तुम्हारे भी
चर्चे अब घर घर में हैं

पहले केवल दिल में थे
अब वो हर मंज़र में हैं