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|रचनाकार=नवारुण भट्टाचार्य
|संग्रह=यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश / नवारुण भट्टाचार्य
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<poem>
मुझे घृणा है उससे
चेतना की बाट जोह रहे हैं आठ शव<ref> पिछली शताब्दी के सत्तर के दशक में कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या कर धान की क्यारियों में फेंक दिया था। उनकी पीठ पर लिखा था देशद्रोही.</ref>
मैं हतप्रभ हुआ जा रहा हूँ
आठ जोड़ा खुली आँखें मुझे घूरती हैं नींद में
हज़ारों वाट की चमकती रोशनी आँखों में फेंक रात-दिन जिरह
नहीं मानती
नाख़ूनों में सुई बर्फ़ की सिल पर लिटाना
नहीं मानती
नाक से ख़ून बहने तक उल्टे लटकाना
नहीं मानती
होंठॊं पर बट दहकती सलाख़ से शरीर दाग़नादाग़ना
नहीं मानती
धारदार चाबुक से क्षत-विक्षत लहूलुहान पीठ पर सहसा एल्कोहल
हमने तुम्हारी कविता को हारने नहीं दिया
समूचा देश मिलकर एक नया महाकाव्य लिखने की कोशिश में है
छापामार छंदों में रचे जा रहे हैं सारे अलंकार.........
गरज उठें दल मादल
प्रवाल द्वीपों जैसे आदिवासी गाँव
रक्त से लाल नीले खेत
शंखचूड़ के विष -फ़ेन सेआहत तितास
विषाक्त मरनासन्न प्यास से भरा कुचिला
टंकार में अंधा सूर्य उठे हुए गांडीव की प्रत्यंचा
तीक्षण तीर, हिंसक नोक
भाला,तोमर,टाँगी और कुठार
चमकते बल्लम, चरागाह दख़ल करते तीरों की बौछार
मादल की हर ताल पर लाल आँखों के ट्राइबल -टोटम
बंदूक दो खुखरी दो और ढेर सारा साहस
इतना सहस कि फिर कभी डर न लगे
कितने ही हों क्रेन, दाँतों वाले बुल्डोज़र,फौजी कन्वाय का जुलूस
डायनमो चालित टरबाइन, खराद और इंजन
ध्वस्त कोयले के मीथेन अंधकार में सख़्त हीरे की तरह चमकती आँखें
अद्भुत इस्पात की हथौड़ी
बंदरगाहों जूटमिलों की भठ्ठियों जैसे आकाश में उठे सैंकड़ों हाथ
नहीं - कोई डर नहीं
डर का फक पड़ा चेहरा कैसा अजनबी लगता है
जब जानता हूँ मृत्यु कुछ नहीं है प्यार के अलावा
हत्या होने पर मैं
बंगाल की सारी मिट्टी के दीयों में लौ बन कर फैल जाऊँगा
साल-दर-साल मिट्टी में हरा विश्वास बनकर लौटूँगा
मेरा विनाश नहीं
सुख में रहूँगा दुख में रहूँगा, जन्म पर सत्कार पर
जितने दिन बंगाल रहेगा मनुष्य भी रहेगा
 जो मृत्यु रात की ठंड में जलती बुदबुदाहट हो कर उभरती हैवह दिन वह युद्ध वह मृत्यु लाओरोक दें सेवेंथ फ़्लीट को सात नावों वाले मधुकरशृंग और शंख बजाकर युद्ध की घोषना होरक्त की गंध लेकर हवा जब उन्मत्त होजल उठे कविता विस्फ़ोटक बारूद की मिट्टी-अल्पना-गाँव-नौकाएँ-नगर-मंदिरतराई से सुंदरवन की सीमा जबसारी रात रो लेने के बाद शुष्क ज्वलंत हो उठी होजब जन्म स्थल की मिट्टी और वधस्थल की कीचड़ एक हो गई होतब दुविधा क्यों? संशय कैसा? त्रास क्यों? आठ जन स्पर्श कर रहे हैंग्रहण के अंधकार में फुसफुसा कर कहते हैं कब कहाँ कैसा पहराउनके कंठ में हैं असंख्य तारापुंज-छायापथ-समुद्रएक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आने जाने का उत्तराधिकारकविता की ज्वलंत मशालकविता का मोलोतोव कॉक्टेलकविता की टॉलविन अग्नि-शिखाआहुति दें अग्नि की इस आकांक्षा में... </poem>{{KKMeaning}}