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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 15

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'''(मारीचानुधावन)भाग-4 किष्किन्धा काण्ड प्रारंभ '''
'''(समुद्रोल्लंघन)'''
पंचबटीं बर पर्नकुटी तर बैठे हैं रामु सुभायँ सुहाए। जब अंगदादिनकी मति-गति मंद भई ,
सोहै प्रिया, प्रिय बंधु लसै ‘तलसी’ सब अंग घने छबि छाए।।पवनके पूतको न कूदिबेको पलु गो।
देखि मृगा मृगनैनी कहे प्रिय बेैनसाहसी ह्वै सैलपर सहसा सकेलि आइ, ते प्रीतमके मन भाए।
हेमकुरंगके संग सरासनु सायकु लै रघुनायकु धाए।। चितवत चहूँ ओर, औरति को कलु गो।   ‘तुलसी’ रसातल को निकसि सलिलु आयो,   कालु कलमल्यो, अहि-कमठको बलु गो।ं   चारिहू चरन के चपेट चाँपें चिपिटि गो,  उचकें उचकि चारि अंगुल अचलु गो।।  '''(इति किष्किन्धा काण्ड )'''
'''(इति अरण्य काण्ड )'''
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