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18:33, 9 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
लेखन वर्ष: २००५/२०११
ज़िन्दगी से दर्द' दर्द से ज़िन्दगी मिली है
इस वीराने में तन्हाई की धूप खिली है
मैं रेत की तरह बिखरा हुआ हूँ ज़मीन पर
उड़ता चला हूँ उधर’ जिधर की हवा चली है
मैं जानता हूँ उसका चेहरा निक़ाब में है
महज़<ref>मात्र</ref> ख़ाबे-उन्स<ref>परिचय का स्वप्न</ref> के लिए शम्अ जली है
फेर लेता है रुख़<ref>चेहरा</ref> चाहो जिसे जाँ की तरह
मेरी हर सुबह’ दोपहर’ शाम यूँ ही ढली है
देखा उसको भी जिसे दोस्ती का पास था
देखकर मुझे उसने अपनी ज़ुबाँ सीं ली है
बोलो ‘नज़र’ किसने पहचाना तुम्हें भूलकर
अब तन्हा जियो तुमको ये ज़िन्दगी भली है
शब्दार्थ
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