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"दिले-सहरा में यह कैसा सराब है/ विनय प्रजापति 'नज़र'" के अवतरणों में अंतर
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सुलगते हैं तेरे ख़्याल शबो-रोज़ | सुलगते हैं तेरे ख़्याल शबो-रोज़ | ||
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− | ज़िन्दगी कब शक़ खाती है मौत से | + | ये ज़िन्दगी कब शक़ खाती है मौत से |
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हर्फ़ मेरे और तसलीम नहीं देते | हर्फ़ मेरे और तसलीम नहीं देते | ||
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01:41, 10 अप्रैल 2011 का अवतरण
लेखन वर्ष: २००३/२०११
दिले-सहरा<ref>मरुस्थल रूपी हृदय</ref> में यह कैसा सराब<ref>मरीचिका, Mirage</ref> है
ज़ख़्म मवाद है मेरी आँख आब है
क्यूँ इश्क़ ख़ौफ़ज़दा रहा है हिज्र से
नस-नस में मेरे कोई ज़हराब<ref>ज़हरीला पानी</ref> है
सुलगते हैं तेरे ख़्याल शबो-रोज़
गलता हुआ तेज़ाब में हर ख़ाब है
जुज़<ref>केवल</ref> बद्र<ref>पूरा चाँद</ref> कौन मेरा रक़ीब<ref>दुश्मन</ref> जहाँ में
मेरी ख़ाहिश को लाज़िम इक नक़ाब है
भटकती है ये नज़र किसकी राह में
उल्फ़त को मेरी और क्या हिसाब है
ये ज़िन्दगी कब शक़ खाती है मौत से
मौत को भी ज़िन्दगी से क्या हिज़ाब<ref>पर्दा, शर्म</ref> है
हर्फ़ मेरे और तसलीम नहीं देते
कि ‘नज़र’ को भी दर्द से क्या इताब<ref>गुस्सा, Rebuke</ref> है
शब्दार्थ
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