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"सवेरा / ज़िया फतेहाबादी" के अवतरणों में अंतर

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मुझे  लेनी  है  तूफ़ानों  से  टक्कर  ऐ  दिल-ए वहशी
 
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कि  अब  आसूदगी  साहिल  की  वजह ए सरगीरानी  है
 
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कि  मैंने  अब  जुनून ए कशमकश  की  क़द्र  जानी  है
 
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बहुत  चलता  रहा  दामन  बचा  कर  ऐ  दिल-ए वहशी
 
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मय-ओ मीना-ओ साक़ी  का  ख़याल ए जाँफ़िज़ा  कब  तक
 
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न  लेगा  तू  सहारा  परतो ए शमशीर  का  कब  तक
 
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न  तू  आएगा  कब  तक  रास्ते  पर  ऐ  दिल-ए वहशी
 
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किसी  की  रेशमी  आँचल  में  कब  तक  मुस्कराएगा
 
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जवानी  की  हसीं  आग़ोश में  तस्कीन  पाएगा
 
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मिटा  जाता  है  झूटी  राहतों  पर  ऐ  दिल-ए वहशी
 
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ये  मज़हब  आदमी  को  आदमी  से  जो  लड़ाता  है
 
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ख़ुदा  के  नाम  पर  जो  शैतनत  को  ख़ुद  जगाता  है
 
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वो  मज़हब  इब्न-ए आदम  का  है  रहबर  ऐ  दिल-ए वहशी
 
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मुझे  इंसानियत  की  मौत  पर  आंसू  बहाने  हैं
 
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यतीमों  और  बेवाओं  के  अफ़साने  सुनाने  हैं
 
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जो  घरवाले  कभी  थे  अब  हैं  बेघर ऐ  दिल-ए  वहशी
 
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क़नूतियत  तेरी  रूहानियत  का  नक्श ए पस्ती  है
 
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तेरी  खुशफहमियों पर  अज़म  तेरा  मुस्कराता  है
 
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कि  पानी  आ  गया  है  सर  के  ऊपर  ऐ  दिल ए वहशी
 
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लूँढा दे  खुम, प्याले  तोड़  दे, साक़ी  को  रुखसत  कर
 
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शुरू-ए दौर-ए नौ  है, तेग  उठा, परचम  से  उल्फत  कर
 
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न  अपने  माज़ी-ए मज़लूम  से  डर  ऐ  दिल-ए वहशी
 
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गई  शब्  और  हंगाम-ए तुल्लू-ए सुबह  आ  पहुँचा
 
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सफ़ीना  ज़ीस्त  का  मंझधार  में  ऐ  नाख़ुदा  पहुँचा
 
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बदलना  है  मुझे  तेरा  मुक़द्दर  ऐ  दिल-ए वहशी
 
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08:51, 11 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

मुझे लेनी है तूफ़ानों से टक्कर ऐ दिल-ए वहशी

कि अब आसूदगी साहिल की वजह ए सरगीरानी है
कि मैंने अब जुनून ए कशमकश की क़द्र जानी है
बहुत चलता रहा दामन बचा कर ऐ दिल-ए वहशी

मय-ओ मीना-ओ साक़ी का ख़याल ए जाँफ़िज़ा कब तक
न लेगा तू सहारा परतो ए शमशीर का कब तक
न तू आएगा कब तक रास्ते पर ऐ दिल-ए वहशी

किसी की रेशमी आँचल में कब तक मुस्कराएगा
जवानी की हसीं आग़ोश में तस्कीन पाएगा
मिटा जाता है झूटी राहतों पर ऐ दिल-ए वहशी

ये मज़हब आदमी को आदमी से जो लड़ाता है
ख़ुदा के नाम पर जो शैतनत को ख़ुद जगाता है
वो मज़हब इब्न-ए आदम का है रहबर ऐ दिल-ए वहशी

मुझे इंसानियत की मौत पर आंसू बहाने हैं
यतीमों और बेवाओं के अफ़साने सुनाने हैं
जो घरवाले कभी थे अब हैं बेघर ऐ दिल-ए वहशी

क़नूतियत तेरी रूहानियत का नक्श ए पस्ती है
ईलाही किस क़दर तखरीब परवर तेरी बस्ती है
जो अब तक बंद थे वो खोल दे दर ऐ दिल-ए वहशी

ज़माना तुझ से आगे और आगे बढ़ता जाता है
तेरी खुशफहमियों पर अज़म तेरा मुस्कराता है
कि पानी आ गया है सर के ऊपर ऐ दिल ए वहशी

लूँढा दे खुम, प्याले तोड़ दे, साक़ी को रुखसत कर
शुरू-ए दौर-ए नौ है, तेग उठा, परचम से उल्फत कर
न अपने माज़ी-ए मज़लूम से डर ऐ दिल-ए वहशी

गई शब् और हंगाम-ए तुल्लू-ए सुबह आ पहुँचा
सफ़ीना ज़ीस्त का मंझधार में ऐ नाख़ुदा पहुँचा
बदलना है मुझे तेरा मुक़द्दर ऐ दिल-ए वहशी