भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिल ए आदम को वहशत है ज़मीं से / ज़िया फ़तेहाबादी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
 
दिल ए आदम को वहशत है ज़मीं से |  
 
दिल ए आदम को वहशत है ज़मीं से |  
 
हवा आई कोई ख़ुल्द ए बरीं से |
 
हवा आई कोई ख़ुल्द ए बरीं से |
 +
 
जो निकली थी दिल ए अन्दोहगीं से |
 
जो निकली थी दिल ए अन्दोहगीं से |
 
जली बिजली उस आह ए आतिशीं से |
 
जली बिजली उस आह ए आतिशीं से |
 +
 
हुई तैयारियाँ दार ओ रसन की  
 
हुई तैयारियाँ दार ओ रसन की  
अनालहक़ की सदा आई कहीं से |  
+
अनालहक़ की सदा आई कहीं से |
 +
 
जहां से क़हक़हे उठे थे शायद  
 
जहां से क़हक़हे उठे थे शायद  
मेरे आँसू भी आए हैं वहीँ से |  
+
मेरे आँसू भी आए हैं वहीँ से |
 +
 
चली दुनिया में रस्म ए सजदारेज़ी
 
चली दुनिया में रस्म ए सजदारेज़ी
कुछ उनके दर से कुछ मेरी जबीं से |  
+
कुछ उनके दर से कुछ मेरी जबीं से |
 +
 
यकीं के पाँव में लग़ज़ीश न आए  
 
यकीं के पाँव में लग़ज़ीश न आए  
 
बदल जाती हैं तक़दीरें यकीं से |
 
बदल जाती हैं तक़दीरें यकीं से |
 +
 
मुहब्बत की " ज़िया " सरशारियाँ हैं  
 
मुहब्बत की " ज़िया " सरशारियाँ हैं  
 
नहीं मुझ को ग़रज़ दुनिया ओ दीं से |
 
नहीं मुझ को ग़रज़ दुनिया ओ दीं से |
 
</poem>
 
</poem>

12:13, 11 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

दिल ए आदम को वहशत है ज़मीं से |
हवा आई कोई ख़ुल्द ए बरीं से |

जो निकली थी दिल ए अन्दोहगीं से |
जली बिजली उस आह ए आतिशीं से |

हुई तैयारियाँ दार ओ रसन की
अनालहक़ की सदा आई कहीं से |
 
जहां से क़हक़हे उठे थे शायद
मेरे आँसू भी आए हैं वहीँ से |
 
चली दुनिया में रस्म ए सजदारेज़ी
कुछ उनके दर से कुछ मेरी जबीं से |
 
यकीं के पाँव में लग़ज़ीश न आए
बदल जाती हैं तक़दीरें यकीं से |

मुहब्बत की " ज़िया " सरशारियाँ हैं
नहीं मुझ को ग़रज़ दुनिया ओ दीं से |