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"कोई इस शहर में अपना नज़र आता ही नहीं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'" के अवतरणों में अंतर

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11:15, 14 अप्रैल 2011 का अवतरण


कोई इस शहर में अपना नज़र आता ही नहीं
कोई दरवाज़ा मोहब्बत का यहाँ वा ही नहीं
 
घर के दर पे जो तेरा नाम था वो मिट तो गया
और दिल पर जो तेरा नाम है मिटता ही नहीं
 
ज़ुल्फ़ की छाँव में कुछ देर कहीं रुक जाओ
प्यार भी चाहिए इंसान को रुपया ही नहीं
 
ज़हनो दिल में है मेरे फ़िक्र का सूरज रौशन
और मेरे घर में मोहब्बत का उजाला ही नहीं
 
हाथ जिसने मेरा देखा है वो ये कहता है
के तेरे हाथ में सुख चैन की रेखा ही नहीं

उसकी तस्वीर थी महफूज़ तेरी आँखों में
"आईना तूने कभी गौर से देखा ही नहीं"
 
मिक़नातीसी है ये मुंबई की खाक 'रक़ीब'
जो यहाँ आता है वो लौट के जाता ही नहीं