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संदेसा / अनिल जनविजय

40 bytes added, 05:54, 15 अप्रैल 2011
|रचनाकार=अनिल जनविजय
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कई दिनों से ई-पत्र तुम्हारा नहीं मिला
 
कई दिनों से बहुत बुरा है मेरा हाल
 
कहाँ है तू, कहाँ खो गई अचानक
 
खोज रहा हूँ, ढूंढ रहा हूँ मैं पूरा संजाल
 
क्या घटा है, क्या दुख गिरा है भहराकर
 
आता है मन में बस, अब एक यही सवाल
 
याद तेरी आती है मुझे खूब हहराकर
 
लगे, दूर है बहुत मास्को से भोपाल
 
बहुत उदास हूँ, चेहरे की धुल गई हँसी है
 
कब मिलेगी इस तम में आशा की किरण
 
जब पत्र मिलेगा तेरा - तू राजी-खुशी है
 
दिन मेरा होगा उस पल सोने का हिरण
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(रचनाकाल : 2006)
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