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"तनक दै री माइ, माखन तनक दै री माइ / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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राग आसावरी  
 
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स्याम सुंदर नँद-कुँवर पर, सूर बलि-बलि जाइ ॥<br><br>
 
स्याम सुंदर नँद-कुँवर पर, सूर बलि-बलि जाइ ॥<br><br>
  
भावार्थ :-- (श्यामसुंदर) अपने चरणोंको चलाते - नाचते हुए छोटे-से हाथपर छोटी सी रोटी माँगते हैं - (और कहते हैं) मैया ! थोड़ा-सा -थोड़ा-सा माखन दे!' स्वर्णभूमिपर रत्न (नीलम) की रेखा जैसे खिंच गयी हो, इस प्रकार वे दौड़े और मथानीकी रस्सी पकड़ ली । इससे (कहीं फिर समुद्र-मन्थन न करें, यह सोचकर) मन्दराचलकाँपने लगा, शेषनाग शंकित हो उठे और समुद्र व्याकुल हो गया । छोटे-से मुखसे थोड़े-थोड़े शब्द तुतलाते हुए बोलते हैं । माता यशोदाके ये प्राण हैं, जीवन हैं, मैयाने इन्हें हृदयसे लिपटा लिया । (माताने बलैया लेते हुए कहा-) `मेरे चित्तको मोहित करनेवाले मेरे नन्हें लाल! तुम्हारी सब आपत्ति-विपत्ति मुझे लग जाय ।' सूरदास तो इस नन्दनन्दन श्यामसुन्दरपर बार-बार न्योछावर है ।
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भावार्थ :-- (श्यामसुंदर) अपने चरणों को चलाते - नाचते हुए छोटे-से हाथ पर छोटी सी रोटी माँगते हैं - (और कहते हैं) मैया ! थोड़ा-सा माखन दे!' स्वर्णभूमि पर रत्न (नीलम) की रेखा जैसे खिंच गयी हो, इस प्रकार वे दौड़े और मथानी की रस्सी पकड़ ली । इससे (कहीं फिर समुद्र-मन्थन न करें, यह सोच कर) मन्दराचल काँपने लगा, शेषनाग शंकित हो उठे और समुद्र व्याकुल हो गया । छोटे-से मुख से थोड़े-थोड़े शब्द तुतलाते हुए बोलते हैं । माता यशोदा के ये प्राण हैं, जीवन हैं, मैया ने इन्हें हृदय से लिपटा लिया । (माता ने बलैया लेते हुए कहा-) `मेरे चित्त को मोहित करने वाले मेरे नन्हें लाल ! तुम्हारी सब आपत्ति-विपत्ति मुझे लग जाय ।' सूरदास तो इस नन्द-नन्दन श्यामसुन्दर पर बार-बार न्योछावर है ।

20:29, 18 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

राग आसावरी

तनक दै री माइ, माखन तनक दै री माइ ।
तनक कर पर तनक रोटी, मागत चरन चलाइ ॥
कनक-भू पर रतन रेखा, नेति पकर्‌यौ धाइ ।
कँप्यौ गिरि अरु सेष संक्यौ, उदधि चल्यौ अकुलाइ ।
तनक मुख की तनक बतियाँ, बोलत हैं तुतराइ ।
जसोमति के प्रान-जीवन, उर लियौ लपटाइ ॥
मेरे मन कौ तनक मोहन, लागु मोहि बलाइ ।
स्याम सुंदर नँद-कुँवर पर, सूर बलि-बलि जाइ ॥

भावार्थ :-- (श्यामसुंदर) अपने चरणों को चलाते - नाचते हुए छोटे-से हाथ पर छोटी सी रोटी माँगते हैं - (और कहते हैं) मैया ! थोड़ा-सा माखन दे!' स्वर्णभूमि पर रत्न (नीलम) की रेखा जैसे खिंच गयी हो, इस प्रकार वे दौड़े और मथानी की रस्सी पकड़ ली । इससे (कहीं फिर समुद्र-मन्थन न करें, यह सोच कर) मन्दराचल काँपने लगा, शेषनाग शंकित हो उठे और समुद्र व्याकुल हो गया । छोटे-से मुख से थोड़े-थोड़े शब्द तुतलाते हुए बोलते हैं । माता यशोदा के ये प्राण हैं, जीवन हैं, मैया ने इन्हें हृदय से लिपटा लिया । (माता ने बलैया लेते हुए कहा-) `मेरे चित्त को मोहित करने वाले मेरे नन्हें लाल ! तुम्हारी सब आपत्ति-विपत्ति मुझे लग जाय ।' सूरदास तो इस नन्द-नन्दन श्यामसुन्दर पर बार-बार न्योछावर है ।