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"माँ / रमेश तैलंग" के अवतरणों में अंतर
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01:45, 20 अप्रैल 2011 का अवतरण
घर में अकेली माँ ही बस
सबसे बड़ी पाठशाला है।
जिसने जगत को पहले-पल
ज्ञान का दिया उजाला है।
माँ से हमने जीना सीखा,
माँ में हमको ईश्वर दीखा,
हम तो हैं माला के मनके,
माँ मनकों की माला है।
माँ आँखों का मीठा सपना,
माँ साँसों में बहता झरना,
माँ है एक बरगद की छाया
जिसने हमको पाला है।
माँ कितनी तकलीफ़ें झेल,
बांटे सुख, सबके दुख ले ले।
दया-धर्म सब रूप हैं माँ के,
और हर रूप निराला है।
