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|संग्रह=फूल नहीं, रंग बोलते हैं-1 / केदारनाथ अग्रवाल
 
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खोल चौड़ी कड़ी छाती को प्रति क्षण
 
खोल चौड़ी कड़ी छाती को प्रति क्षण
 
 
अब नगाड़े कब कड़कते !
 
अब नगाड़े कब कड़कते !
 
 
ढोल, ढीले बोल को ऊपर उठाने
 
ढोल, ढीले बोल को ऊपर उठाने
 
 
अब नहीं हम ज़ोर भरते !
 
अब नहीं हम ज़ोर भरते !
 
 
अंग-अंग उमंग में नव रंग लेकर
 
अंग-अंग उमंग में नव रंग लेकर
 
 
अब न दंग मृदंग करते ।
 
अब न दंग मृदंग करते ।
 
 
ठंड से ऎंठे हुए, ठिठुरे बहुत ही,
 
ठंड से ऎंठे हुए, ठिठुरे बहुत ही,
 
 
अब न तबले ही ठनकते !!
 
अब न तबले ही ठनकते !!
 
 
प्यार-पारावार बारम्बार पा कर
 
प्यार-पारावार बारम्बार पा कर
 
 
अब न तार-सितार तनते ।
 
अब न तार-सितार तनते ।
 
 
लीन अन्तर्गीत के मद पीन में हो
 
लीन अन्तर्गीत के मद पीन में हो
 
 
बीन के न विहाग तरते ।
 
बीन के न विहाग तरते ।
 
 
राव-रंगी, भाव-भंगी, केलि-संगी,
 
राव-रंगी, भाव-भंगी, केलि-संगी,
 
 
स्वर सरंगी के न सजते ।
 
स्वर सरंगी के न सजते ।
 
 
आज बर्बर क्रूर कर्कश विश्व भर को
 
आज बर्बर क्रूर कर्कश विश्व भर को
 
 
सभ्यता के गाल बजते ।
 
सभ्यता के गाल बजते ।
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13:50, 24 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

खोल चौड़ी कड़ी छाती को प्रति क्षण
अब नगाड़े कब कड़कते !
ढोल, ढीले बोल को ऊपर उठाने
अब नहीं हम ज़ोर भरते !
अंग-अंग उमंग में नव रंग लेकर
अब न दंग मृदंग करते ।
ठंड से ऎंठे हुए, ठिठुरे बहुत ही,
अब न तबले ही ठनकते !!
प्यार-पारावार बारम्बार पा कर
अब न तार-सितार तनते ।
लीन अन्तर्गीत के मद पीन में हो
बीन के न विहाग तरते ।
राव-रंगी, भाव-भंगी, केलि-संगी,
स्वर सरंगी के न सजते ।
आज बर्बर क्रूर कर्कश विश्व भर को
सभ्यता के गाल बजते ।