भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सीमाब दशी, तिश्नालबी बाख़बरी है / मख़दूम मोहिउद्दीन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मख़दूम मोहिउद्दीन |संग्रह=बिसात-ए-रक़्स / मख़दू…)
 
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=मख़दूम मोहिउद्दीन  
 
|रचनाकार=मख़दूम मोहिउद्दीन  
|संग्रह=बिसात-ए-रक़्स / मख़दूम मोहिउद्दीन  
+
|संग्रह=गुले-तर / मख़दूम मोहिउद्दीन  
 
}}
 
}}
 
{{KKCatGhazal‎}}‎
 
{{KKCatGhazal‎}}‎

08:48, 28 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण

सीमाब दशी<ref>पारे जैसा</ref>, तिश्नालबी<ref>अधरों की प्यास</ref> बाख़बरी है
इस दश्त में गर रख़्ते सफ़र<ref>यात्रा का सामान</ref> है तो यही है ।

इक शहर में इक आहुए ख़ुशचश्म<ref>हिरणी जैसी आँखों वाली</ref> से हमको
कम कम ही सही निस्बते पैमाना रही है ।

बेसोहबते रुख़सार<ref>कपोलों की संगत के बिना</ref> अँधेरा ही अँधेरा
गो जाम वही मय वही मयख़ाना वही है ।

इस अहद<ref>काल</ref> में भी दौलते कौनेन<ref>धन की कुनीन जैसी नशीली दवा</ref> के बावस्फ
हर गाम<ref>क़दम</ref> पे उनकी जो कमी थी सो कमी है ।

हर दम तेरे अन्फ़ास<ref>साँसों</ref> की गर्मी का गुमाँ है
हर याद तेरी याद के फूलों में बसी है ।

हर शाम सज़ाए है तमन्ना के नशेमन
हर सुबह मये तलख़िए अय्याम<ref>मदिरा की कड़ुवाहट के घूँट</ref> भी पी है ।

धड़का है दिले ज़ार<ref>ट्टा दिल</ref> तेरे ज़िक्र से पहले
जब भी किसी महफ़िल में तेरी बात चली है ।

वो इत्र तेरी काकुले शबरंग ने छिड़का
महकी है खिरद<ref>बुद्धि</ref>, रुह कली बनके खिली है ।

शब्दार्थ
<references/>