"लोग / शंभुनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शंभुनाथ सिंह }} {{KKCatGeet}} <poem> सोनहँसी हँसते हैं लोग…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
| (इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
| पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=शंभुनाथ सिंह | |रचनाकार=शंभुनाथ सिंह | ||
}} | }} | ||
| − | {{ | + | {{KKCatNavgeet}} |
<poem> | <poem> | ||
सोनहँसी हँसते हैं लोग | सोनहँसी हँसते हैं लोग | ||
22:36, 2 मई 2011 के समय का अवतरण
सोनहँसी हँसते हैं लोग
हँस-हँस कर डसते हैं लोग ।
रस की धारा झरती है
विष पिए हुए अधरों से,
बिंध जाती भोली आँखें
विषकन्या-सी नज़रों से ।
नागफनी को बाहों में
हँस-हँस कर कसते हैं लोग ।
जलते जंगल जैसे देश
और क़त्लगाह से नगर,
पाग़लख़ानों-सी बस्ती
चीरफाड़घर जैसे घर ।
अपने ही बुने जाल में
हँस-हँस कर फँसते हैं लोग ।
चुन दिए गए हैं जो लोग
नगरों की दीवारों में,
खोज रहे हैं अपने को
वे ताज़ा अख़बारों में ।
भूतों के इन महलों में
हँस-हँस कर बसते हैं लोग ।
भाग रहे हैं पानी की ओर
आगजनी में जलते से,
रौंद रहे हैं अपनों को
सोए-सोए चलते से ।
भीड़ों के इस दलदल में
हँस-हँस कर धँसते हैं लोग ।
वे, हम, तुम और ये सभी
लगते कितने प्यारे लोग,
पर कितने तीखे नाख़ून
रखते हैं ये सारे लोग ।
अपनी ख़ूनी दाढ़ों में
हँस-हँस कर ग्रसते हैं लोग ।
