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लक्ष्मण मूर्च्छा


( छंद संख्या 54 55)

 (54)

  लील्यो उखारि पहारू बिसाल,
चल्यो तेहि काल, बिलंबु न लायो।

मारूत नंदन मारूत को, मनको,
 खगराजको बेगु लजायो।

तीखी तुरा ‘तुलसी’ कहतो ,
 पै हिएँ उपमाको समाउ न आयो।

मानो प्रतच्छ परब्बतकी नभ,
लीक लसी, कपि यों धुकि धायो।54।

(55)

चल्यो हनुमानु, सुनि जातुधान कालनेमि,
पठयो सो मुुनि भयो, फलु छलि कै।

सहसा उखारो है पहारू बहु जोजनको,
रखवारे मारे भारे भूरि भट दलि कै।।

बेगु, बलु, साहस सराहत कृपालु रामु,
भरतकी कुसल, अचलु ल्यायो चलि कै।

हाथ हरिनाथके बिकाने रघुनाथ जनु ,
सीलसिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि कै।55।