भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ग़ज़ल-4 / मुकेश मानस" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Mukeshmanas (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकेश मानस |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> चलते ही जाना, चलत…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
19:36, 5 मई 2011 के समय का अवतरण
चलते ही जाना, चलते ही जाना
मेरी ज़िन्दगी का यही है फसाना
जंगल है आगे, सहरा है पीछे
कुछ भी मैंने रुकना न जाना
लगी जब भी ठोकर, खुद को संभाला
यूं ही गिरते उठते, जीवन को जाना
मैं ऐसा मुसाफ़िर नहीं जिसकी मज़िल
मगर जिसकी धुन है, चलते ही जाना
मैं आज खुद से मुख़ातिब हूँ यारो
न आवाज़ देना, न मुझको बुलाना
2005