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"सुख / कीर्ति चौधरी" के अवतरणों में अंतर
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भेद सभी खोलेंगी । | भेद सभी खोलेंगी । | ||
अनजाने होठों पर गीत आ जाता है । | अनजाने होठों पर गीत आ जाता है । | ||
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सुख क्या यही है ? | सुख क्या यही है ? |
23:08, 5 मई 2011 के समय का अवतरण
रहता तो सब कुछ वही है
ये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...
बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
लेकिन क्या होता है
कभी-कभी
फूलों में रंग उभर आते हैं
मेज़पोश-कुशनों पर कढ़े हुए
चित्र सभी बरबस मुस्काते हैं,
दीवारें : जैसे अब बोलेंगी
आसपास बिखरी क़िताबें सब
शब्द-शब्द
भेद सभी खोलेंगी ।
अनजाने होठों पर गीत आ जाता है ।
सुख क्या यही है ?
बदलता तो किंचित् नहीं है,
ये पर्दे--यह खिड़की--ये गमले...