भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"लौटना है हमें / योगेंद्र कृष्णा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा |संग्रह= }} <poem> लौटना है हमें अपनी…)
 
पंक्ति 33: पंक्ति 33:
 
धरती की आगोश में
 
धरती की आगोश में
  
------
+
-
  
 
चिड़ियों के घोंसले
 
चिड़ियों के घोंसले
पंक्ति 80: पंक्ति 80:
 
एक दूसरे से पूरी तरह बेखबर
 
एक दूसरे से पूरी तरह बेखबर
  
---------
+
-
  
  

12:27, 16 मई 2011 का अवतरण


लौटना है हमें अपनी जड़ों में

जैसे लौटती है कोई चिड़िया

अपने घोंसले में

दिन भर की परवाज़ से


जैसे लौटता है अंततः

चूल्हे पर खौलता हुआ पानी

उत्तप्त उफनता हुआ सागर

अपनी नैसर्गिक प्रशांति में


जैसे लौटता है

ऊंचे पहाड़ों से झरता हुआ पानी

आकाश में उमड़ता घुमड़ता हुआ

स्याह पानीदार बादल

धरती की आगोश में

-

चिड़ियों के घोंसले

आज भी सुरक्षित हैं

अपने आदिम स्वरूप में

उनके परवाज़ की खुशियां

क्योंकि वे आज भी

पेड़ जंगल नदी पहाड़

और तिनकों के ही गीत गाती हैं


नहीं बनातीं अब

घर की गोरैया भी

हमारे घरों में अपने घोंसले

क्योंकि हम नहीं लेते

उनकी छोटी-छोटी

खुशियों कोई हिस्सा


अपने घरों में हम

नहीं जीते उनकी फ़ितरत

नहीं गाते उनके गीत उनकी भाषा


और क्योंकि पता है उन्हें

हमारे घरों के भीतर

दीवारों के बिना भी

बसते हैं कई कई और भी घर

एक दूसरे से पूरी तरह बेखबर

-


ऐसे में…

हमें तो डरना चाहिए

फसलों की जगह

खेतों में लहलहाती इमारतों से

आकाश और समुद्र को चीरते

जहाजों के भयावह शोर से

मंदिर मस्जिद गिरिजाघरों

में सदियों से जारी

निर्वीर्य मन्नतों दुआओं से जन्मे

मुर्दनी सन्नाटों से


सड़कों पर हमारे साथ

कदमताल करते खंभों

और बिजली के तारों से

जगमग रौशनी और

फलते फूलते दुनिया के बाज़ारों से


हां, मुझे डरना चाहिए

स्वयं अपने आप से

जैसे डरती है मुझसे

अचानक सामने पड़ जाने पर

मासूम-सी कोई चिड़िया