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"कलिंग का सबेरा / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर

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22:08, 19 मई 2011 का अवतरण

अर्द्धरात्रि
स्तब्ध प्रहर
निबिड़ निशीथ में
तम के आलिंगन में धरती यों सिमटी थी
होकर भय-विह्वल ज्यों प्रिया
प्रिय-अंक में |
अगणित निज नयनों से
देख रहा शून्य-पुरुष झाँक-झाँक
धरती के अलसाए अंगों को
जिन पर अगणित अबोध
सुषमाएँ सोती थीं
कमलपत्र मध्य किसी सुरभिमत्त भौरें सम |
अनजाना था जो अन्य
था अति जघन्य
वीभत्स
रौद्र अनाचार |

००
 
तम के साम्राज्य मध्य
तमसावृत शिविर-द्वार
प्रहरी एक उद्यत था -
अपनी ही साँसों की आहट से डरता-सा
सन्नाटे का अभेद्य प्रांगण था नाप रहा |
शिविर मध्य सज्जा थी
राजोचित
वीरोचित
सारे अस्त्र-शस्त्रों की -
गदा, खड्ग, धनुष-बाण
शिरस्त्राण और कवच |
स्निग्ध दीप कान्तिमान
करता था अर्चना |
दुग्ध-धवल
फेन-शुभ्र शैया पर सोता था
अगणित शूरवीरों का समर्थवान सेनानी -
परमवीर मौर्य
चंडाशोक शूर महाप्राण |
अंगों पर
अगणित समरयज्ञों का तेज था
साँसों में बसती थी
नित्य रक्त-आहुति की
प्रबल पराक्रम की
अनंत वीर-विक्रम की
अपार उत्तेजना -
प्राणों में अपराजित तेजवान चेतना |

मौर्यकुल-कुंजर ने
पिता-पितामह के
अनन्य शौर्य-सौरभ को
दिशि-दिशि विस्तीर्ण किया -
धरती के आनन को सतत विदीर्ण किया |
परमभट्टारक ने
जीतकर कलिंग राज्य -
काँटे-सा खटकता था जो उसके प्राणों में -
मौर्य-साम्राज्य को बनाया था अपराजेय -
दिग्विजयी स्वप्न प्रबल
उसका साकार हुआ |
युद्ध में बिछे
अनंत अंग साक्षी थे
पौरुष के
प्रण के
बल और विक्रम के
प्रचंड स्वप्न-पूर्ति के |

           *

आकृति एक
शिविर मध्य गोचर हुई सहसा -
दीप के प्रकाश की प्रवृद्ध हुई कांति स्वयं |
मुखमंडल तेजयुक्त
किंचित मलीन था -
मेघों के कानन मध्य सूर्य-बिम्ब हो जैसे |
करुणा का
ममता का
बुद्ध की समता का
सर्वदमन शांति का
सचराचर प्रेम का
रुचिर मिला-जुला भाव
नयनों से झाँक रहा -
दूरगामी सपनों की गहराई आँक रहा |
केशहीन मुख पर खिले
नयनों के युगल पद्म -
विस्तृत भ्रू-तले वे विशाल अक्ष निर्दोषी
शिव-से सर्वतापहरण
मंगलमय सृष्टिभरण -
करते अनन्य प्रीति-सौरभ का रस-वर्षण |

जाग उठा चंडाशोक
अपने ही सपनों की
प्रबल उत्तेजना से -
मत्तगज चेतना से
सहमा
कुछ झिझका
ससंभ्रमित उठ बैठा
निकट पड़े खड्ग पर सहज ही हाथ जा पहुँचा |
परमशांत मुद्रा ने बरजा नहीं उसको -
अनायास ही अशोक हतप्रभ-सा हो गया
असह्य मुग्ध दृष्टि-तले |
अंग जड़ित-से उसके
तीव्र हुई श्वास-गति -
बोला भय-विह्वल फिर -
'कौन...कौन... हो तुम, भिक्षु ?'

देख दिग्विजयी को
विचलित कंपित देहयुक्त
वाणी स्खलित-सी
नि:सत्त्व और क्रियाहीन
आकृति के नयनों में करुणभाव गहराया -
माँ जैसे देखे अपराधी पुत्र ओर सहज
ममता और वेदना अपार से पूरित दृष्टि |
बोली वह आकृति
वाणी स्निग्ध सौहार्दभरी -
" वत्स, प्रियदर्शी अशोक
मौर्यकुलभूषण !
मैं हूँ कोई अन्य नहीं
तेरा ही तदनुरूप -
अंतर की दृष्टि धवल
प्राणों का महातेज
वीतराग अवचेतन
नित्य जो विरागभरी चेतना जगाता है -
प्राणों को भरता है अमृत की ऊर्जा से |

तुमने पर सुने नहीं
मेरे शुद्ध-बुद्ध वचन -
होकर प्रबुद्ध रहे
अंधे आत्म-केन्द्रित ही |
तुमने मुझे दुत्कारा
फिर-फिर तिरस्कार किया
पर मैं चला आया यहाँ
युद्धभूमि में भी |
आत्मा भी प्राणों से
छाया भी तन से क्या
पृथक कभी होती है |
आओ, चलो युद्धभूमि
देखो पराक्रम निज -
अपने ही नयनों से
अपना ही बल-विक्रम |”
            
   
सुनता था मंत्रमुग्ध :
दृष्टिबद्ध सम्मोहित वशीभूत
चंडाशोक अनुगामी हो गया उसका |
आकृति थी आगे
पीछे चलता अशोक था
जैसे हो माया अनुवर्ती ब्रह्म की
अथवा छाया पुरुष के पीछे हो चलती ज्यों |

००

युद्धभूमि -
अर्द्धचन्द्र निकला था
सहसा मेघराशि छोड़
कुटिल कटार-सा
अथवा तीखे कटाक्ष-सा
पैना धारदार और रक्तभरा ताम्रवर्ण |
सहमा था वह भी देख
धरती की नरलीला -
हिंसा की ज्वाला की
नरमुंडी माला की
प्रतिहिंसा हाला की
संहारक व्याला की |

हो गया सहसा ही
संहारी दृश्य व्यक्त -
अगणित कबन्धों से धरती थी पटी पड़ी -
रुंड मुंडहीन, अंग छिन्न-भिन्न थे अनंग
भेद था समाप्त वहाँ नर और वाहन का
चारों ओर महाकार काल का प्रसार था |
रुधिराकुल सरिता में
होते थे प्रवहमान
अगणित अंग-प्रत्यंग -
रुण्ड-छिन्न मुण्ड थे प्रचण्ड |

क्षीण शशि-ज्योत्स्ना में
लगती थी और अधिक भयकारी
रक्तवर्ण तमसा विभावरी -
दृश्य था भयंकर
नरहिंसा का नारकीय
देखकर जिसे यम भी हो जाये भय-विह्वल |

आकृति थी वीतराग
हुई किन्तु विकल करुण |
मुख पर फिर
वेदना अकलुष अवतरित हुई |
कंठ-रुद्ध, करुणा-आर्द्र
बोली फिर रुक-रुककर -
मानो कोई पीड़ा की शिरा हो टेरती -
"तूने क्या किया, वत्स !
बोल, यह क्यों किया ?"
शनै: शनै: शांत हो
बोली फिर आकृति यों -
“देख, देख ! चहुँ दिशि में विस्तृत
साम्राज्य निज -
हिंसा यह महाकार
मृतकों का राज्यतंत्र |
इनका तू शासक है
इनका तू स्वामी है -
भूलुंठित लोथों का तेरा साम्राज्य सफल |

कितने ही सुहागों का
स्वर्णिम संसार बुझा -
बच्चों के सपनों की करके निर्मम हत्या -
खंडित भविष्य कर
हिंसा से महाकार
तूने यह प्राप्त किया राज्य निष्प्राणों का -
तेरी है कीर्ति अचल !
साक्षी यह धरती है
साक्षी यह चन्द्र ज्योति
साक्षी नभगंगा में विस्तृत तारे हैं
तेरे महत गौरव के
नारकीय रौरव के
हिंसा के भैरव के
रक्तपात के रव के -
जिनका तू सृष्टा है शाश्वत इतिहास-अमर |

खोलकर गवाक्ष देख अपने क्षुद्र अंतर का -
तूने कितने भविष्य
कितने ही मनहर स्वप्न
कितनी महत इच्छाएँ
सुंदर कितनी अनाम स्वर्णिम मृदु कल्पनाएँ
परियों के पंख-सी कोमल मधु भावनाएँ
अपने अहं-तुष्टि हेतु
अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु
नितप्रति बलिदान किये -
प्राण की पिपासा को रक्त-समाधान दिये -
डूबे आकंठ नित्य रक्त-सुरभि मदिरा में
मदोन्मत्त होकर
रुधिर-धार में नहाये तुम |

देख सृष्टि अपनी यह
रुधिर-वृष्टि अपनी यह
प्राणों के हन्ता का गौरव फिर प्राप्त कर -
और देख लाशों से पटी
यह धरती माँ -
कुक्षि-पुत्रहीन
सूनी सीमन्तिनी
रक्त-स्नात वक्ष लिए
तुझसे क्या कहती है
प्राणों के हाहाकार मध्य बहती है -
"और नहीं ...और नहीं
हो गयी असह्य अब
पीड़ा अनुदार विकल -
धृष्ट मानव-विकार हिंस्र -
पापों का बोझ अब सहन नहीं होता है |
तूने भी वही किया
वही रक्त-वृष्टि सतत
मृत्यु की अनंत सृष्टि |
अंत नहीं-अंत नहीं
लिप्सा का अंत नहीं |
अगणित साम्राज्यों को
मैंने इन वक्षों पर
पाल है, पोसा है और फिर नष्ट किया
उनकी महत इच्छा से, लिप्सा से ऊबकर |
कितने सम्राटों ने तुझसे भी पूर्व, मूर्ख
मेरी इस काया को क्षत-विक्षत करके
फिर प्रेयसी बनाया था -
बने स्वयं भोक्ता, हाय
अपनी ही जननी के -
अनाचार महाकार !
करती मैं हाहाकार !"

काँप गया चंडाशोक
धरती का हाहाकार अंतर में समा गया |
विद्युत की धारा-सी रग-रग में व्याप गयी
प्राणों में फैल गयी तप्त एक ज्वाला-सी
विष से बुझे बाण सदृश
एक-एक शब्द लगा सीधे मर्मस्थल में |
मर्माहत
शुष्क कंठ
घुटते-से घ्राण थे
रग-रग में चिंगारी
रौरव की फूट रही
पश्चाताप-अग्नि में सुलगते-से प्राण थे |
माँगते थे त्राण 'त्राहि-त्राहि' की पुकार में |
और तभी उमड़ी थी
सहसा नभ-गंगा-सी -
मन के सगरपुत्रों के पापों के शमन हेतु -
एक दिव्य वाणी-सी
अंतर की गुहा मध्य -
" धीरज मत खोओ, वत्स !
जीवन है सतत गतिमान, अवरुद्ध नहीं |
देखो, है जाग रहा गौरवमय नव विहान -
आत्मा की झंझा से शाश्वत अवकाश लो |
गौरव का
पुण्य का
प्रताप का अनश्वर निज
करो नित्य भान, पुत्र  !"

जगा जैसे अशोक
स्वप्न से प्रचंड विकल -
आकृति अचानक ही हो गयी अदृश्य कहीं
मानो अशोक में पाकर निज सहज प्राण |
अंतर में
शीतलता शनै: शनै: व्याप गयी
साँसों में, प्राणों में वैभव-सा जाग उठा |

००

स्वप्नशील था अशोक
बनकर अनुराग विमल |
आँखों से अश्रुधार सतत प्रवाहित थी
कंठ अवरुद्ध
पर अंतर था बोल रहा
जन-मन पवित्रकरी उस रसधारा में |
देवानांप्रिय महान
प्रियदर्शी शुद्ध हृदय
मुग्ध दृष्टि-सृष्टि विशद -
नयनों में नये क्षितिज
आगत भविष्य के उदयमान होते थे |
धर्म-प्रति आस्था का
अनंत साम्राज्य था -
प्रीति का
जीवन का
शास्ता के वचनों का
बुद्ध के प्राणों का
सुरभित था अनघ स्वप्न
साँसों में गूँज रहा
अभयदान महामंत्र -
'बुद्धं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि' |