"लौटा दो पगडंडियाँ. / कुमार रवींद्र" के अवतरणों में अंतर
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कहाँ ले गए, मित्र ! | कहाँ ले गए, मित्र ! |
19:55, 20 मई 2011 के समय का अवतरण
कहाँ ले गए, मित्र !
हमारी पगडंडियों को कहाँ ले गए
जिन पर चलने के
हमारे पैर आदी थे ।
उन पगडंडियों में
हमारे पुरखों की छाप थी
वे आत्मीय थीं हमारी
सदियों की उस चाल ने
कभी कोई ग़लती नहीं की थी
उन्हें पता था
हमारे देश की मिट्टी
किस चाल के लायक है ।
माना कि
पगडंडियाँ सँकरी थीं
जिन पर तुम्हारे जुलूस नहीं चल सकते थे
माना कि
उन पर गर्दो-गुबार थी
जिससे तुम्हारे उजले तन मैले होते थे
माना कि
तुम्हारे बड़प्पन के अनुरूप नहीं थीं वे
माना कि
उनमें वह सब था
जिसे तुम आज पिछड़ापन कहते हो ।
पर मेरे भाई !
वे कितनी अपनी थीं
तुम्हें क्या पता -
क्योंकि तुम्हारे पैमाने दूसरे हैं ।
उन पगडंडियों पर चलते
हमारे पाँव मैले होते थे
मन नहीं
उनका सँकरापन
पिछड़ापन
हमें खोलता था
बढ़ाता था
डराता नहीं
सदियों से चलती रहीं थीं वे
बहुत कुछ देखा था उन्होंने
चाहतीं तो वे ऐसा कर सकतीं थीं ।
इतनी अनुभवी
इतनी ऐतिहासिक
पगडंडियों को तुम कहाँ ले गए, हमारे भाग्य-विधाता !
संग्रहालयों में रखने से
समय इतिहास नहीं बनते
न ही काल-पात्र में उन्हें गाड़ने से
उन्हें पगडंडियों से गुज़रना पड़ता है
इसके लिए ।
यह लंबी-चौड़ी चमचमाती सड़क
यह विस्तृत राजमार्ग
जो पगडंडी के स्थान पर
तुमने हमें दिए
और जिन पर रोज़ निकलते
तुम्हारे जुलूस कभी थकते नहीं
हमारे नही हो सकते
क्योंकि उन पर हमारी पहचानी
धूल नहीं है ।
हमारे पैर इन पर चलते थरथराते हैं ।
इतनी गहमागहमी के वे आदी नहीं हैं ।
ये अजनबी हैं
पराई हैं हमारे पैरों के लिए ।
गरीब के पाँव गलती नहीं करते
पहचानने में ।
लौटा दो हमें वह धूल
जो हमें ताकत देती थी
हमारी पगडंडियाँ फिर से
हमारे पाँव-तले बिछा दो
ताकि हम ज़िंदा रह सकें
तुम्हारे दिए ढँग से नहीं
बल्कि अपने ढँग से ।
तुमहारी इन फिसलनभरी सड़कों पर
हमारी ज़वानी के
फिसल जाने का बड़ा डर है
और एक बार फिसल जाने पर
उन पर सँभलना तो नामुमकिन ही है ।
हमारी पगडंडियाँ
ऐसे मौकों पर थाम लेतीं थीं हमारे पाँव
और गिरने पर भी
ऐसे सँभालतीं थीं
जैसे पैबन्दों भरा माँ का प्यारा आँचल ।
करारी हार के क्षणों में भी
उन्होंने हमें जीने दिया था
हमारी अपनी शर्तों पर
पूरे सम्मान और विश्वास के साथ ।