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"टूटी हुई नज़र / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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मैं देख रहा हूँ कुछ दिनों से
 
मैं देख रहा हूँ कुछ दिनों से
 
 
कि एक टूटी हुई नज़र
 
कि एक टूटी हुई नज़र
 
 
आँखों के उदास आँगन में
 
आँखों के उदास आँगन में
 
 
आकर गिरती है बारहा
 
आकर गिरती है बारहा
 
 
दरवाज़े पर खड़े दरख़्त से
 
दरवाज़े पर खड़े दरख़्त से
 
 
लटक रही है साँस की सूखी डाली
 
लटक रही है साँस की सूखी डाली
 
 
जिसके दामन में मौजूद हैं
 
जिसके दामन में मौजूद हैं
 
 
कुछ खुशबूदार फूल और पत्तियाँ
 
कुछ खुशबूदार फूल और पत्तियाँ
 
 
रात के सख़्त अंधेरे में
 
रात के सख़्त अंधेरे में
 
 
जब बीनाई बेवफा हो जाती है
 
जब बीनाई बेवफा हो जाती है
 
 
और हम खुद को
 
और हम खुद को
 
 
सिर्फ महसूस कर पाते हैं
 
सिर्फ महसूस कर पाते हैं
 
 
तब एहसास का एक टूकड़ा
 
तब एहसास का एक टूकड़ा
 
 
अपनी आहों में मुझे भर कर
 
अपनी आहों में मुझे भर कर
 
 
लबों से थूक देता है
 
लबों से थूक देता है
 
 
तक़लीफ का तकिया
 
तक़लीफ का तकिया
 
 
छाती से चिपका कर
 
छाती से चिपका कर
 
 
सदियों से रूठी नींद को
 
सदियों से रूठी नींद को
 
 
मनाने की नाकाम कोशिश करता हूँ
 
मनाने की नाकाम कोशिश करता हूँ
 
 
इस उम्मीद के साथ
 
इस उम्मीद के साथ
 
 
कि नज़र लौट कर नहीं आये
 
कि नज़र लौट कर नहीं आये
 
 
रूह सहमी-सी खड़ी है
 
रूह सहमी-सी खड़ी है
 
 
उफ़क़ पर सवेरा आने ही वाला है
 
उफ़क़ पर सवेरा आने ही वाला है
 
 
चाँद और ज़मीन के दर्मियान
 
चाँद और ज़मीन के दर्मियान
 
 
अब ज़्यादा फ़ासला नहीं बचा
 
अब ज़्यादा फ़ासला नहीं बचा
 
 
इससे पहले कि
 
इससे पहले कि
 
 
चाँदनी मेरे जिस्म को छू ले
 
चाँदनी मेरे जिस्म को छू ले
 
 
और मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हो जाऊँ
 
और मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हो जाऊँ
 
 
देखना चाहता हूँ
 
देखना चाहता हूँ
 
 
कि एक टूटी हुई नज़र
 
कि एक टूटी हुई नज़र
 
 
आँखों के उदास आँगन में
 
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कैसे आकर गिरती है ?
 
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01:38, 25 मई 2011 के समय का अवतरण

मैं देख रहा हूँ कुछ दिनों से
कि एक टूटी हुई नज़र
आँखों के उदास आँगन में
आकर गिरती है बारहा
दरवाज़े पर खड़े दरख़्त से
लटक रही है साँस की सूखी डाली
जिसके दामन में मौजूद हैं
कुछ खुशबूदार फूल और पत्तियाँ
रात के सख़्त अंधेरे में
जब बीनाई बेवफा हो जाती है
और हम खुद को
सिर्फ महसूस कर पाते हैं
तब एहसास का एक टूकड़ा
अपनी आहों में मुझे भर कर
लबों से थूक देता है
तक़लीफ का तकिया
छाती से चिपका कर
सदियों से रूठी नींद को
मनाने की नाकाम कोशिश करता हूँ
इस उम्मीद के साथ
कि नज़र लौट कर नहीं आये
रूह सहमी-सी खड़ी है
उफ़क़ पर सवेरा आने ही वाला है
चाँद और ज़मीन के दर्मियान
अब ज़्यादा फ़ासला नहीं बचा
इससे पहले कि
चाँदनी मेरे जिस्म को छू ले
और मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हो जाऊँ
देखना चाहता हूँ
कि एक टूटी हुई नज़र
आँखों के उदास आँगन में
कैसे आकर गिरती है ?