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"मेरा दुख / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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समेट लेता हूँ अपने दुख शब्दों में कहीं
 
समेट लेता हूँ अपने दुख शब्दों में कहीं
 
 
बाढ़ की चपेट में आ गया हो कोई गाँव जैसे
 
बाढ़ की चपेट में आ गया हो कोई गाँव जैसे
 
 
दिखती है एक छत अब भी
 
दिखती है एक छत अब भी
 
 
एकत्रित हैं गाँव के लोग जहाँ
 
एकत्रित हैं गाँव के लोग जहाँ
 
 
खो गया बेटा किसी का
 
खो गया बेटा किसी का
 
 
बन चुके कई बच्चे अनाथ
 
बन चुके कई बच्चे अनाथ
 
 
गुज़रे सालों की तरह
 
गुज़रे सालों की तरह
 
 
उखड़ चुका संबंधों का पेड़ भी
 
उखड़ चुका संबंधों का पेड़ भी
 
 
कहाँ थी मज़बूत जड़ें इसकी
 
कहाँ थी मज़बूत जड़ें इसकी
 
 
खड़ा था अब तक
 
खड़ा था अब तक
 
 
मेरे टूटे हुए छप्पर के सहारे
 
मेरे टूटे हुए छप्पर के सहारे
 
 
महीनों बाद सूखता है भीगा पानी
 
महीनों बाद सूखता है भीगा पानी
 
 
महीनों बाद भीगता है सूखा कंठ
 
महीनों बाद भीगता है सूखा कंठ
 
 
लोग कहते हैं जिसे जीवन, वही पानी
 
लोग कहते हैं जिसे जीवन, वही पानी
 
 
मृत कर देता है कई घर
 
मृत कर देता है कई घर
 
 
लोग हो जाते हैं तितर-बितर
 
लोग हो जाते हैं तितर-बितर
 
 
कुछ इधर – कुछ उधर
 
कुछ इधर – कुछ उधर
 
 
सिमट नहीं पाता किन्तु
 
सिमट नहीं पाता किन्तु
 
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क्योंकि मेरा दुख शब्दों में नहीं समा सकता।
क्योंकि मेरा दुख शब्दों में नहीं समा सकता ।
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01:40, 25 मई 2011 के समय का अवतरण

समेट लेता हूँ अपने दुख शब्दों में कहीं
बाढ़ की चपेट में आ गया हो कोई गाँव जैसे
दिखती है एक छत अब भी
एकत्रित हैं गाँव के लोग जहाँ
खो गया बेटा किसी का
बन चुके कई बच्चे अनाथ
गुज़रे सालों की तरह
उखड़ चुका संबंधों का पेड़ भी
कहाँ थी मज़बूत जड़ें इसकी
खड़ा था अब तक
मेरे टूटे हुए छप्पर के सहारे
महीनों बाद सूखता है भीगा पानी
महीनों बाद भीगता है सूखा कंठ
लोग कहते हैं जिसे जीवन, वही पानी
मृत कर देता है कई घर
लोग हो जाते हैं तितर-बितर
कुछ इधर – कुछ उधर
सिमट नहीं पाता किन्तु
क्योंकि मेरा दुख शब्दों में नहीं समा सकता।