भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गे (Gay) / त्रिपुरारि कुमार शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा }} {{KKCatKavita}} <Poem> छुपा कर ख़ुद …)
 
(कोई अंतर नहीं)

00:02, 26 मई 2011 के समय का अवतरण

छुपा कर ख़ुद को रात की नज़रों से मैं
अपनी छत पर चला जाता हूँ
फिर बुलाता हूँ चाँद को इशारों से
उसकी आहट से माहौल महक उठता है
वह आते ही गालों पे बोसा करता है
और मैं नाज़ुक-सी पलकें चूमता हूँ
फिर जोर से जकड़ता है अपनी बाँहों में
और सुलाता है अपने सीने पर
कभी वह मुझको ओढ़ लेता है
कभी मैंने भी बनाया है बिछौना उसका
सारी रात हम सोते हैं न जागते हैं
धुंधले ख्वाबों के पीछे भागते हैं
हमारे दरमियान क्या रिश्ता है पता ही नहीं
मगर आपस में प्यार बहुत करते हैं
इंतज़ार बस रहता है शाम कब होगी
सहर होते ही तकलीफ उसे भी होती है

हमारे रिश्ते का कोई नाम नहीं शक्ल नहीं
लोग कहते हैं ‘गे’ हैं दोनों...