भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सुख की ये चिंदियां / योगेंद्र कृष्णा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा |संग्रह= }} <poem> कहीं भी बना लेती ह…)
 
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह= }}
 
|संग्रह= }}
 
<poem>  
 
<poem>  
 
 
कहीं भी बना लेती हैं अपनी जगह
 
कहीं भी बना लेती हैं अपनी जगह
 
वे कहीं भी ढूंढ़ लेती हैं हमें...
 
वे कहीं भी ढूंढ़ लेती हैं हमें...

17:13, 28 मई 2011 के समय का अवतरण

 
कहीं भी बना लेती हैं अपनी जगह
वे कहीं भी ढूंढ़ लेती हैं हमें...
हमारी गहनतम उदासियों में
बांटती हैं
खौफ़नाक मौत के सिलसिलों के बीच भी
इस दुनिया में
ज़िंदा बचे रहने का सुख

और भी ढेर सारे नन्हे सुख
अपनी उदासियां...अपनी पीड़ाएं
बहुत अपनों को बता पाने का सुख...

बहुत अच्छे दिनों में
साथ-साथ पढ़ी गई
बहुत अच्छी-सी किसी कविता
या किसी जीवन-संगीत की तरह...
रिसते ज़ेहन पर उतरता है
अनजाना अप्रत्याशित-सा कोई पल
किसी चमत्कार की तरह...

गहन अंधकार में भी चमकती
सुख की ये नन्ही निस्संग चिंदियां
हमारी पीड़ाओं के खोंखल में
बना लेती हैं सांस लेने की जगह...

और इसीलिए
हां, इसीलिए हमारे आसपास ज़िंदा हैं
सभ्य हत्यारों की नई नस्लें
यातनाओं और सुख के अंतहीन सिलसिलों में
घालमेल होतीं इंसानियत की नई खेपें...
और ज़िंदा है
बहुत बुरे और कठिन समय में
किसी सच्चे दोस्त की तरह
जीवन से भरपूर कोई कविता...

हमारे संत्रास और दुःस्वप्नों को
सहलाता-खंगालता बहुत अपना-सा कोई स्पर्श...