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स्रवन सुनत चली, आवत देखि लषन-रघुराउ |
सिथिल सनेह कहै,
"है सुपना बिधि, कैधौं सति भाउ ||

सति भाउ कै सपनो? निहारि कुमार कोसलरायके |
गहै चरन, जे अघहरन नत-जन-बचन-मानस-कायके ||

लघु-भाग-भाजन उदधि उमग्यो लाभ-सुख चित चाय कै |
सो जननि ज्यों आदरी सानुज, राम भूखे भायकै ||