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"मृगमरीचिका / विजय कुमार पंत" के अवतरणों में अंतर

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संबंधों से
सीखना चाहता था
जीवन जीने की कला
अनुभवी होती है
बूढी नजरें, ऐसा सुना करता था अक्सर
आज भी....
रोकते रहते है कदम
अनसुलझे संबंधो के ताने बाने
और रह रह कर मन
उलाहने देता रहता है,
चरमराये संबंधो को अस्त-व्यस्त देखकर
फिर से मैं उठाता हूँ
घुटने टेक चुकी अदम्य इच्छाशक्ति को
ताकि कर सकूं पुनर्जीवित संबंधो को
अथक प्रयासों के बाद
यही समझ पाया मन
कि
तुम्हारे सब संबंधो का प्रारंभ भी
शरीर से होता है और अंत भी शरीर पर
जिन्हें मैं खोजता रहा हमारी आत्माओं में
क्षितिज पर सुबह और शाम की तरह ...जो कभी मिल ना सकी