"ट्रैफिक पुलिस का सिपाही / माया मृग" के अवतरणों में अंतर
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12:50, 5 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
ट्रैफिक पुलिस का
वह सिपाही
अपने साफ-सुथरे और
चमाचम सफेद कपड़ों में
शहर के व्यस्त चौराहे में
सड़क से कुछ ऊँचा खड़ा
आने-जाने वालों को
अपने संकेतों से बताता रहता है
कि किसे कब रूकना है
और कब-गति बढ़ाकर
आगे बढ़ जाना है।
उसकी नजर से नहीं छिपता
कौन गलत बढ़ रहा है
और संकेत से ही
समझा देता है कि
एक रूका नहीं-और
दूसरा चल पड़ा -तो
दोनों टकराकर गिरेंगे।
जब तक शहर
चकाचौंध में अंधा रहता है,
वह पल-पल रोककर
उन्हें बताता है
कि चलने के लिए
रूकना कितना जरूरी है ?
ट्रैफिक पुलिस का एक सिपाही
जब अपनी जगह
दूसरे सिपाही को सौंपकर
घर चला आता है तो
पाता है
कि उसके घर में
कहीं कोई भागदौड़ नहीं है।
शहर की कोई भीड़ भरी सड़क
उसके घर तक नहीं आती।
भीतर के ताले खोलता है
और बत्ती जलाकर
उन हाथों को देखता है
जिनसे वह
गति के नाम पर हो रही
अनथक भागदौड़ को
कुछ पल विराम देता है।
उसे
अपने सधे हाथों के संकेत पर
अटूट भरोसा है-
परंतु
सारा दिन खड़े हाथों की थकन से
वह झाडू भी नहीं लगा पाता
भीतर के कमरे में।
जहां दिन-प्रति जाले
जमते ही जा रहे है
दीवारें
छत से सीधी ही जा मिली हैं
संधिया तो धूल भरे जालों से ढंप गई है।
हॉर्न के चीखो-पुकार सुनते-सुनते
उसके कान अघा गए हैं,
या कि सुन्न होकर-बस
लटके रह गए हैं
इसीलिए उसे
सुनाई नहीं देता
कमरे के भीतर-सन्नाटे
खौफनाक पर सच्चा संगीत
सांय-सांय, भांय-भांय
घुल गई है पौं-पौं, पीं-पीं में।
वह यूं ही चुपचाप बढ़ता है,
स्टोव जलाकर सन्नाटा तोड़ता है।
केरोसिन के धुएं में
मंद होने लगती है कमरे की बत्ती
और
जमने लगते हैं जालों पर जाले।
वह क्या करे ?
वह कैसे करे कि पहले
सारा दिन सबकों सम्भाले
और हर रात
खुद को टटोले-खोेले/मिला ले !
शुक्र है कि
कमरे की धूल और जालों का
कोई निशान-उसकी वर्दी पर
लोगों को कभी नहीं दिखता