भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आख़िर कबतक / एम० के० मधु" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=एम० के० मधु |संग्रह=बुतों के शहर में }} <poem> तुम कब स…)
 
पंक्ति 25: पंक्ति 25:
 
रोज लिखी जाने वाली एक ही भाषा
 
रोज लिखी जाने वाली एक ही भाषा
 
जिसका अर्थ सबको मालूम है
 
जिसका अर्थ सबको मालूम है
पर तुम्हे मालूम नहीं
+
पर तुम्हें मालूम नहीं
 
क्योंकि तुम्हारे पास आंखें हैं
 
क्योंकि तुम्हारे पास आंखें हैं
 
कान हैं
 
कान हैं

23:05, 6 जुलाई 2011 का अवतरण

तुम कब सुनोगी
पहाड़ पर उतरते
उदास बादलों की आहट

कब देखोगी
शांत झील में
एक कंकड़ी से उठा जल तरंग

जानवरों के शोर शराबे में
घने जंगल के उस पेड़ की
पत्तियों का रुदन
कब महसूस करोगी

तुम कब पढ़ोगी
मेरे चेहरे पर
दोपहर और सांध्य-वेला का संघर्ष
और कब पढ़ोगी
मेरी आंखों में
रोज लिखी जाने वाली एक ही भाषा
जिसका अर्थ सबको मालूम है
पर तुम्हें मालूम नहीं
क्योंकि तुम्हारे पास आंखें हैं
कान हैं
दिल भी है
पर ढेर सारे पत्थरों के बीच
तुम्हारे दिमाग में
पत्थरों की नदी बहती है।