भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पटाक्षेप / सुधीर सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह= }} अब लीलाओं के लिए ज़रूरी नहीं ...)
 
(कोई अंतर नहीं)

03:28, 5 जुलाई 2007 के समय का अवतरण


अब लीलाओं के लिए

ज़रूरी नहीं रहा मंच

न ज़रूरी रहे

नट-नटी और सूत्रधार.


ज़रूरी नहीं रही मंच सज्जा

कि अब समूची धरती है लीला का रंगमंच

और तो और

ज़रूरी नहीं रहा अंगराग,

न पीतांबर, न मुकुट,

अब वर्गीकृत नहीं रहीं भूमिकाएँ

कि चाहिए एक अदद धीरोदात्त नायक,

एक अदद रूपगर्विता मुग्धा नायिका,

और एक अदद विदूषक सहचर.


अब खल विदूषक है

और विदूषक नायक

और नायक क्लीव

अब युग नहीं रहा सुखांत या दुखांत का

कि लीला पुरुष की लीला

कभी ख़त्म नहीं होती

चलती रहती है लीला अहर्निश अविराम

पटकथा से पूर्णतः विलोपित कर दिया गया है

शब्द पटाक्षेप.