"स्वयं वन्दिनी पिंजरे में जब तड़प रही हो माता / सप्तम सर्ग / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
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जैसे फेंका जाल सुनहरा जादूभरा किसीने | जैसे फेंका जाल सुनहरा जादूभरा किसीने | ||
परख-परखकर माली ज्यों उपवन की कलियाँ बीने | परख-परखकर माली ज्यों उपवन की कलियाँ बीने | ||
− | कैसी थी पुकार, आ | + | कैसी थी पुकार, आ पहुँचे वीर-प्रवर घर-घर से |
एक-एक कर रत्न सभी ज्यों निकले रत्नाकर से | एक-एक कर रत्न सभी ज्यों निकले रत्नाकर से | ||
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पर सुभाष के रोम-रोम में भाले गड़े हुए थे | पर सुभाष के रोम-रोम में भाले गड़े हुए थे | ||
यही तड़प थी, मुक्ति मिले कैसे गोरे शासन में | यही तड़प थी, मुक्ति मिले कैसे गोरे शासन में | ||
− | चीरूँ नभ को, धरा | + | चीरूँ नभ को, धरा फोड़कर भी निकलूँ बंधन से |
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घेर राम को ज्यों त्रेता में महासिंधु के तट पर | घेर राम को ज्यों त्रेता में महासिंधु के तट पर | ||
− | साधनहीन, क्षीण तनु बैठे थे सब सखा | + | साधनहीन, क्षीण-तनु बैठे थे सब सखा सिमटकर |
निज-निज पुर से रण-भू में आ पहुँचे सभी स्वराजी | निज-निज पुर से रण-भू में आ पहुँचे सभी स्वराजी | ||
थे अंगद-सुग्रीव-सदृश ज्यों कृपलानी, राजाजी | थे अंगद-सुग्रीव-सदृश ज्यों कृपलानी, राजाजी | ||
बढ़े सुधी आज़ाद शंखध्वनि करते कलकत्ते से | बढ़े सुधी आज़ाद शंखध्वनि करते कलकत्ते से | ||
− | + | खिँच आया हो मधु जैसे मधुमक्खी के छत्ते से | |
अलीबंधु, गफ्फ़ार खान, टंडन-से थे अनुगामी | अलीबंधु, गफ्फ़ार खान, टंडन-से थे अनुगामी | ||
ज्यों नल-नील आदि के सँग थे जाम्बवंत निष्कामी | ज्यों नल-नील आदि के सँग थे जाम्बवंत निष्कामी | ||
दीनबंधु ऐन्ड्र्यूज लाँघकर आये तट लंका का | दीनबंधु ऐन्ड्र्यूज लाँघकर आये तट लंका का | ||
− | भारत-श्री सरोजिनी ने फहरा दी विजय पताका | + | भारत-श्री सरोजिनी ने फहरा दी विजय-पताका |
विविध दिशाओं से अगणित अनुगामी चलकर आये | विविध दिशाओं से अगणित अनुगामी चलकर आये | ||
सब बापू की और देखते थे टकटकी लगाये | सब बापू की और देखते थे टकटकी लगाये |
02:38, 15 जुलाई 2011 का अवतरण
स्वयं वन्दिनी पिंजरे में जब तड़प रही हो माता
कौन भला केसरिकिशोर को निज कुल-धर्म सिखाता!
चढ़े कूदकर गज-मस्तक पर, आती कैसे क्षमता!
अपने गर्जन की प्रतिध्वनि सुनकर था आप सहमता
क्रुद्ध कराघातों से दृढ़ अर्गला नहीं हिलती थी
सोया श्रांत मृगेंद्र, मुक्ति की युक्ति नहीं मिलती थी
सोया था हिमवान, सो रही थी गंगा की धारा
किसने निद्रालीन देश को एकाएक पुकारा
. . .
जैसे फेंका जाल सुनहरा जादूभरा किसीने
परख-परखकर माली ज्यों उपवन की कलियाँ बीने
कैसी थी पुकार, आ पहुँचे वीर-प्रवर घर-घर से
एक-एक कर रत्न सभी ज्यों निकले रत्नाकर से
. . .
जैसे पुलकित हुए राम थे देख भरत-सा भाई
वैसे ही राजेन्द्र-विभा दी बापू को दिखलाई
. . .
यों तो वीर अनेक शीश देने को खड़े हुए थे
पर सुभाष के रोम-रोम में भाले गड़े हुए थे
यही तड़प थी, मुक्ति मिले कैसे गोरे शासन में
चीरूँ नभ को, धरा फोड़कर भी निकलूँ बंधन से
. . .
घेर राम को ज्यों त्रेता में महासिंधु के तट पर
साधनहीन, क्षीण-तनु बैठे थे सब सखा सिमटकर
निज-निज पुर से रण-भू में आ पहुँचे सभी स्वराजी
थे अंगद-सुग्रीव-सदृश ज्यों कृपलानी, राजाजी
बढ़े सुधी आज़ाद शंखध्वनि करते कलकत्ते से
खिँच आया हो मधु जैसे मधुमक्खी के छत्ते से
अलीबंधु, गफ्फ़ार खान, टंडन-से थे अनुगामी
ज्यों नल-नील आदि के सँग थे जाम्बवंत निष्कामी
दीनबंधु ऐन्ड्र्यूज लाँघकर आये तट लंका का
भारत-श्री सरोजिनी ने फहरा दी विजय-पताका
विविध दिशाओं से अगणित अनुगामी चलकर आये
सब बापू की और देखते थे टकटकी लगाये
यद्यपि कोटि-कोटि हृदयों तक उड़ जातीं बेपाँखें
एक सत्य की और लगी थीं पर बापू की आँखें
जादू था न चतुरता कोई, नहीं छद्म या छल था
उन आँखों में जो भी बल था, सत्य-प्रेम का बल था
जो विचारमय, उसको कोई मार कभी सकता है!
सत् जिसको कहते हैं, वह क्या हार कभी सकता है!
बापू उसी ज्योतिमय पथ पर बढ़ाते थे एकाकी
कोटि-कोटि जन मुग्ध देखते थे त्रेता की झाँकी
राज्य-रहित, नि:सैन्य, धरे मुनि-पट, रथहीन, अकेले
सत्याश्रयी राम ने जैसे वार सहस्रों झेले
और अंत में उसी शक्ति के बल से सहज अशंका
मुट्ठी-भर वानर-सेना ले जीती दुर्जय लंका