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"भावी का धनुष-भंग, सीता-राघव-विवाह / द्वितीय खंड / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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दृग झुके भूमि पर भय से  
 
दृग झुके भूमि पर भय से  
 
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कुछ क्षण रुक बोले मुनि फिर नृप का देख चाव
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'राजन! मैं आया आज लिए कुछ स्वार्थ-भाव
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रक्षण ऋषियों का यह तो क्षत्रिय का स्वभाव
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देखते तुम्हारे यज्ञ-ध्वंस हों महाराव
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हिंसक असुरों के द्वारा!
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बोले मुनि, 'राजन धैर्य धरो सब सुनकर भी
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असुरों से रण की युक्ति रचेगी और कभी
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तुम रहो अवध में, रहे तुम्हारी सैन्य सभी
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बस मुझको दे दो राम-लखन दो कुँवर अभी
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निज आश्रम की रक्षा को
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'पुर, परिजन, प्रिय परिवार, बंधु, धन, धाम सही
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मैं दे सकता हूँ सब कुछ लेकिन राम नहीं
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मुनि गूँज रहा नस-नस में मेरे नाम वही'
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नृप कह न सके आगे, पलकें अविराम बहीं
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परिषद डूबी उतरायी
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दिख पड़ी सामने सरयू निर्मल पुण्य-पाथ
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तब कहा राम ने पुरवासी-दिशि जोड़ हाथ
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'अब फिरें आप यों विकल न होंगे अवध-नाथ!
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मैं लौटूंगा द्रुत, द्रुततर, द्रुततम बंधु साथ 
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मुनि  का आदेश  वहन कर
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'खल-दमन, संत-जन-रक्षण-हित है प्रभुताई  
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आशिष दें, भूलूँ नहीं क्षात्र-व्रत मैं, भाई!
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सेवा में ही दी मुक्ति मुझे तो दिखलाई
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है ध्येय, पोंछ प्रति दृग के आँसू दुखदायी
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निर्भय कर दूँ भव-अंतर
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'"नर-तनु निष्फल पर-हित में नहीं लगाया जो
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जीवन क्या है दुखियों के काम न आया जो!
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विजयी, निज-पर की तोड़ सका दृढ माया जो
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त्यागा जिसने संसार, उसी का पाया हो"   
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मैं यही सिखाने आया
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'हो अभय, मुक्त जग, रहे न कोई विफल-काम
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प्रतिजन मुझमें, प्रतिजन में मैं रम रहा राम
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मैं धरती पर रचकर नूतन वैकुण्ठ-धाम
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नर को नारायण का कैसे मिल सके नाम
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वह मार्ग दिखाने आया'
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गुण-शील-रूप-व्रत एक, राम-प्रतिछवि ललाम
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लघु भ्राता-सँग आ गए भरत ज्यों फिरे राम
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हँस बोले, 'प्रभु त्रिभुवन-नायक से बचे वाम
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सुर, असुर, नाग, नर, ऐसा कहीं न शक्ति-धाम
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जननी! मत तनिक बिचारें'
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कौसल्या ने पुलकित प्राणों से लिया लगा
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आनन युग सुत का निश्छल! पावन, स्नेहरँगा
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बोली गदगद्, 'प्रिय तुमसे बढ़कर पुत्र सगा!
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रहता तुममें ही राम-लखन का हृदय टँगा
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तुम कभी न उनसे न्यारे'
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हो गया ढेर पल में सुबाहु-मुख-बाहु-हीन
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रथ, अश्व, पदातिक, सैन्य दिवातम-से विलीन
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सागर के पार उड़ा शर खा मारीच दीन
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जो बचे, फिरे छवि-क्षीण, पुन: लौटे कभी न
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भूले भी आश्रम की दिशि
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सज गये साज़ मंगल के तोरण-कलश-द्वार
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नभ-सुमन-वृष्टि, मुनि करते वैदिक महोच्चार
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'जय राम! अखिल जग-शक्ति-शील-सौन्दर्य-सार
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त्रय-ताप-हरण, भव-शरण करण-कारण उदार
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पा तुम्हें विगत माया-निशि
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'तुम साधन-हीन दीन जन के रक्षक, त्राता
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जन-जन के अंत:-स्रोत, शक्ति-शुभगति-दाता
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आदर्श-चरित, जय! निगमागम-से युग भ्राता
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हो निर्बल अबसे कहीं न कोई दुख पाता
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तुम निर्धन के धन आये
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'योगी ने देखा तुम्हें तुरीयावस्था धर 
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मुनि ने मन में, ऋषियों ने सृष्टि-व्यवस्था पर
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घट-घट-वासी विभु तुम्हीं वैदिकों के ईश्वर
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जय! मनुज-रूप, सुर-भूप, भक्त-भय-हर, सुखकर
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तुम जग के जीवन आये
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'मर्यादा जाग उठी धर्मों की लुप्त-प्राय
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घर-घर में यज्ञ-हुताशन, समता, सत्य, न्याय
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तुम आये प्रभु! बहुजन-हिताय, बहुजन-सुखाय
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सन्देश धर्म का जिससे घर-घर फैल जाय
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संसृति सब भाँति सुखी हो
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'कोई न काम-रत, स्वेच्छाचारी, शक्ति-भीत
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संकलित, संतुलित, जन-जन के जीवन विनीत
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रण जड़ तत्वों में, क्रीड़ा, कौतुक, हार-जीत
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सबको सम, सहज धरा के धन, हिम, ताप, शीत
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जन एक कहीं न दुखी हो'
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लौटे मुनिगण करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान
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आश्रम से अनति दूर जड़ता ज्यों मूर्तिमान
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थी जहाँ गौतमी बिता रही दिन तृण-समान
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कह दिया किसीने राजकुँवर युग छवि-निधान
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मृगया के हित हैं आये 
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पुरजन-परिजन से तिरस्कृता अबला, अनाथ
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सहती समाज की घृणा न कोई संग-साथ
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त्यक्ता तरुणी को पारस-मणि-सी लगी हाथ
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प्रमुदित, शंकित, गर्वित, लज्जित-सी उठ हठात् 
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उसने नव वसन सजाये
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दिन बीते, बीती रात, प्रात फिर साँझ हुई
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बन गयी प्रतीक्षा जैसे विष की बुझी सुई
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निस्तेज अहल्या बिना छुई ज्यों छुईमुई
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मकड़ी-सी पाशबद्ध जैसे ककड़ी कड़ुई
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सोये से मानों जागी
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कटि पर घट ले आलुलित-केश, सद्य:स्नाता
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चल दी कौशिक-मख-भूमि जिधर थी विख्याता
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थे जहाँ बसे सुर-मुनि-सुख-दाता, भव-त्राता 
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युग अस्ति-नास्ति-से गौर-श्याम, दोनों भ्राता  
+
जन-सेवा-हित गृह-त्यागी
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देखे मुनि के सँग कोटि-काम-शोभाभिराम
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इन्दीवर-निन्दित-नयन, राम, घन-सजल-श्याम
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नत, शांत, मौन, स्वस्थित-से, चिर आनंद-धाम
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युग भक्ति-मुक्ति-से चरण, भीत भाव के विराम
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संकुचित धरा पर धरते
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गंभीर, धीर, शुचि, सरल, गुणों के समुचय-से
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पीछे लक्ष्मण तनु गौर, आ रहा यश जैसे  
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सब पाप-ताप कर क्षार स्नेहमय दृग-द्वय से
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धनु-शर कर, उर मणि-माल, बढ़ रहे विस्मय-से
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भव को आलोकित करते
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श्यामल अलकें ज्यों बिछी शिला सम्मुख प्रभु के 
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राजीव-नयन गुरु की दिशि मुड़, संकुचित रुके
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बोले मुनि, 'राघव! रघुकुल का गौरव न झुके
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परित्यक्ता गौतम-वधू पाप से शतक्रतु के
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यह अबला, दीन, बिचारी
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आहत हरिणी-सी उर में विष की लिए चोट
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बस तनिक तुम्हारी चरण-रेणु-हित रही लोट
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प्रभु दो कलंकिनी को करुणा की अभय ओट
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ढह जायें जिससे कोटि जन्म के पाप-कोट
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फूले उदास फुलवारी'
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मंगल-गौरव-छवि-धाम राम निष्काम बढ़े
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अभिशप्त, तप्त भू की दिशि ज्यों घनश्याम बढ़े
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तमपूर्ण गुहा में जैसे किरण ललाम बढ़े
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छूते ही दृग से अश्रु-तुहिन अविराम झड़े 
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गल गयी शिला-सी नारी
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युग-युग का पाप-ताप पल में जल हुआ क्षार
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आ गयी तीर पर तरणी जैसे निराधार
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साधन-भ्रष्टा ने पाया मानों सिद्धि-द्वार
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पग से लिपटी कर उठी आर्त स्वर में पुकार
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जग के छल-बल से हारी
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अनुरागी मन के पावन पति पर ही उदार
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मैं हाय! अभागिन, नागिन-सी कर उठी वार
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प्रभु शिला बन गयी नारी शिर ले शाप-भार
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तुम, देव! खोल दो आज हृदय के रुद्ध द्वार
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जड़ता नव-जीवन पाये
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'अंतर में जो भी कलुष, पाप, लांछना, व्यथा
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सब बनें आज कंचन-सी पारस परस यथा
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कैसे कह दूँ मैं, देव! कि जीवन गया वृथा
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जब जुड़ी अहल्या के सँग पावन राम-कथा
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कल्याणी, मंगलकारी!
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जलता न हृदय में ग्रीष्म, नयन सावन होते!
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क्यों आते जग में राम न जो रावण होते!
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होते न पतित तो कहाँ पतित-पावन होते!
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प्रभु! चरण तुम्हारे कैसे मनभावन होते
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बनती न शिला जो नारी!'
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दृग से झर-झर आँसू  बरसे, रूँध गया गला
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कह सकी न आगे कुछ भी भावाकुल अबला
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बोले प्रभु करुणा-सजल, 'अहल्ये! न रो, भला
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तू पावन सदा पूर्णिमा की ज्यों चन्द्र-कला,
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अब और नहीं तपना है
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वह क्षणिक हृदय की दुर्बलता, वह पाप-भार
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कल का सारा जीवन जैसे बीती बयार
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वह देख, आ रहे गौतम, पहला लिए प्यार
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अब से नूतन जीवन, नव संसृति में सँवार
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जो बीत गया सपना है 
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रवि-शशि-से मन की चपल वृत्ति में बँधे आप
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किसके मानस में उदित न होते पुण्य-पाप!
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गिर-गिर कर उठना चेतनता का यही माप
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जन-जीवन पर बस उसी पुरुष की पड़ी छाप
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जो कभी न दुख से हारा
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जो तिल-तिल जलता गया, किन्तु बुझ सका नहीं
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जो पल-पल लड़ता गया, कष्ट से थका नहीं
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जो रुका न पथ पर, भय-विघ्नों से झुका नहीं
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जो चूक गया फिर भी निज को खो चुका नहीं
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जन वही मुझे है प्यारा
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जो पीड़ित, लांछित, दीन, दुखी दुर्बल, अनाथ 
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चिर-पतित, अपावन, जग में चलते झुका माथ
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मैं भक्ति-मुक्ति से भरता उनके रिक्त हाथ
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दूँ बहा सृष्टि में प्रेम-जाह्नवी पुण्य-पाथ
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बस इसी लिए आया हूँ
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अब रहा न तेरी पावनता में मीन-मेष
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बीती दुख की तम-निशा, सुखों का प्रात देख
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मुनि-रोषानल में तप कर निर्मल कनक-रेख,
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पढ़ आज, अहल्ये! नूतन जीवन-भाग्य-लेख
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जो तेरे हित लाया हूँ’
+
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02:59, 15 जुलाई 2011 का अवतरण


भावी का धनुष-भंग, सीता-राघव-विवाह 
किंवा रावण-जय कर फिरने-सा महोत्साह 
पगतल-नत सानुज राम-रूप मुनि थके थाह
'ताड़िका-सुबाहु-विजय की इनसे करूँ चाह!'
संशय, भय, विस्मय जागे   

'ये मृदुल अल्प-वय बाल कमल के दल जैसे
दिग्गज मदांध दुर्दांत भीम दानव वैसे
इनसे भीषण रिपु-शक्ति विजित होगी कैसे?
गूँजेगा विश्व भला फिर देवों की जय से?
होगी दिक्-दिक् मख पूजा?
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सहसा खुल गये बंद अंतर के ज्योति-द्वार
'थे राम मनुज? सच्चिदानंद, पूर्णावतार'
देखा विराट् विभु-रूप सामने महाकार
क्षिति-भार-हरण, भव-शरण-वरण, जन-हृदय-हार
सुर-नर-विधि-हरि-हर-पूजित
 
हिल्लोलित जलनिधि चरणों पर खाता पछाड़
ब्रह्माण्ड कोटि प्रति रोम, त्रस्त गिरते पहाड़
करतल से जलते त्रिभुवन को दे रहे आड़
देखा कौशिक ने चकित मुँदे लोचन उघाड़
पल-भर वह रूप अकल्पित
 
करते नभ से जयघोष देव-किन्नर समस्त
शत कोटि भुजा भाव-व्याप्त, स्रजन-संहार-व्यस्त
दिग-काल-भ्रष्ट देखे खगोल शत उदित, अस्त
अभिवादन-मिस माँगते क्षमा संपुटित-हस्त
दृग झुके भूमि पर भय से
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