"यह कैसा झूठा सत्य, भीरु वीरत्व, सदय निर्दयता है! (द्वितीय सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
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− | है देवोचित आचरण यही, | + | है देवोचित आचरण यही, गुण यही यहाँ थे सीख रहे! |
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ओसों से प्यास बुझा तुम तो जा रहे प्रात के तारे-से | ओसों से प्यास बुझा तुम तो जा रहे प्रात के तारे-से | ||
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उर में जलते जो अंगारे आँसू से कभी बुझे भी हैं! | उर में जलते जो अंगारे आँसू से कभी बुझे भी हैं! | ||
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जल जाय न ज्वाला में पड़कर जो हृदय तिरस्कृत तिनका है | जल जाय न ज्वाला में पड़कर जो हृदय तिरस्कृत तिनका है | ||
02:10, 17 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
यह कैसा झूठा सत्य, भीरु वीरत्व, सदय निर्दयता है!
जो हृदय निमिष में चूर करे, यह भी अच्छी सहृदयता है!
तुम कीर्ति-कुमारी के प्रेमी, दे मुझे स्नेह की भीख रहे
है देवोचित आचरण यही, गुण यही यहाँ थे सीख रहे!
ओसों से प्यास बुझा तुम तो जा रहे प्रात के तारे-से
इस धारा-सदृश पुकार तुम्हें रोऊँ मैं लिपट किनारे से!
रोऊँ भी, पर रो लेने से मिलनी क्या शान्ति मुझे भी है!
उर में जलते जो अंगारे आँसू से कभी बुझे भी हैं!
बाड़व-सा बढ़ विक्षुब्ध रहा इस जल से तो बल इनका है
जल जाय न ज्वाला में पड़कर जो हृदय तिरस्कृत तिनका है
देखो माधवी-लता मुड़-मुड़कर कहती है क्रुद्ध दिवाकर से
'क्या प्रीति यही तन बेध रहे तुम मेरा ज्वालामय शर से!
मधुकर-श्रेणी-सी वेणी में ये फूल तुम्हीं ने खोंसे थे
किरणों के कोमल हाथ बढ़ा हिम-अश्रु पलक के पोंछे थे'
मैं इस लतिका-सी छिन्न-भिन्न पथ में रो-रो मर जाऊँगी
मेरे बालारुण! आज यहाँ यदि रोक न तुमको पाऊँगी