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"इंतज़ार-१ / सत्यानन्द निरुपम" के अवतरणों में अंतर

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तुम्हारी आमद तय थी
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कागा कई बार आज सुबह से मुंडेर पर बोल गया
थाप सीढ़ियों पर पड़ी
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सूरज माथे से आखों में में उतर रहा
किसी के पैरों की
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मगर...
कानों ने कहा-
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कई बार यूँ लगा कि साइकिल की घंटी ही बजी हो
यह तुम नहीं हो
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दौड़कर देहरी तक पहुंचा तो
और तुम नहीं थी
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शिरीष का पेड़ भी अकेला है
सोचता हूँ
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ओसारे पर किसी की आमद तो नहीं दिखती
कानों का तुम्हारे पैर की थापों से
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सड़क का सूनापन आँखों में उतर आता है
जो परिचय है, वह क्या है...
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कहीं गहरे से सांस एक भारी निकलती है
 
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लगता है अपना ही बोझ खुद ढोया नहीं जायेगा
कुछ अनाम भी रहे जिंदगी में
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हवा में हाथ उठता है
तो जिंदगी सफ़ेद हलके फूलों की
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किसी का कंधा नहीं मिलता
भीनी-भीनी खुशबू-सी बनी रहती है
+
अंगुलियां चौखट पर कसती चली जाती हैं
यह ख्याल आते ही
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उम्मीदें भरभराकर जमीन पर बैठ जाती हैं
सोचना छोड़, देखने लगता हूँ
+
बेचैनी की तपिश माथे में सिमट आती है
तुम्हारी राह...
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खूब-खूब पानी का छींटा भी दिलासा नहीं देता
खुशबू के कल्ले-दर-कल्ले फूटते हैं
+
जाने दिल को जो चाहिए
कमरे के कोने में!
+
वह चाहिए ही क्यों
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हर सवाल का हरदम जवाब नहीं होता
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लेकिन ऐसा तो नहीं होता कि
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रास्ते अनुत्तरित दिशाओं को जाते हों
 
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12:54, 19 जुलाई 2011 के समय का अवतरण

कागा कई बार आज सुबह से मुंडेर पर बोल गया
सूरज माथे से आखों में में उतर रहा
मगर...
कई बार यूँ लगा कि साइकिल की घंटी ही बजी हो
दौड़कर देहरी तक पहुंचा तो
शिरीष का पेड़ भी अकेला है
ओसारे पर किसी की आमद तो नहीं दिखती
सड़क का सूनापन आँखों में उतर आता है
कहीं गहरे से सांस एक भारी निकलती है
लगता है अपना ही बोझ खुद ढोया नहीं जायेगा
हवा में हाथ उठता है
किसी का कंधा नहीं मिलता
अंगुलियां चौखट पर कसती चली जाती हैं
उम्मीदें भरभराकर जमीन पर बैठ जाती हैं
बेचैनी की तपिश माथे में सिमट आती है
खूब-खूब पानी का छींटा भी दिलासा नहीं देता
जाने दिल को जो चाहिए
वह चाहिए ही क्यों
हर सवाल का हरदम जवाब नहीं होता
लेकिन ऐसा तो नहीं होता कि
रास्ते अनुत्तरित दिशाओं को जाते हों