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"नन्हीं बच्ची-सी धूप / सुरेश यादव" के अवतरणों में अंतर

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खिलौने रचे थे - हमने
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{{KKGlobal}}
इस लिए
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कि इनसे खेलेंगे
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|रचनाकार=सुरेश यादव
खेलने लगे अपनी मरजी से
+
}}
लेकिन ये खिलौने
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करने लगे मनमानी
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<poem>
बच्चों को खाने लगे बे खौफ
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ये खिलौने
+
  
बेकाबू हुए हैं जब से ये खिलौने
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छज्जे पर बैठी
एक-एक कर हम भूल गए हैं
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पाँव हिलाती
सारे खेल बदहवासी में
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नन्हीं बच्ची-सी धूप
खिलौने अब हमें डराने लगे हैं.
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आँगन में उतरने को बहुत मचलती
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सूरज से दिनभर झगरती
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शाम होते-होते
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हाथ झटक
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बेचारी को उठा लेता
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रोज निर्दयी सूरज
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और धूप अनमनी होकर
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हर शाम
 +
उठ कर चली जाती है
 +
शाम धीरे-धीरे गहराती है जैसे
 +
बच्ची रोते-रोते सो जाती है.
 +
 
 +
 
 +
</poem>

21:45, 19 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


छज्जे पर बैठी
पाँव हिलाती
नन्हीं बच्ची-सी धूप
आँगन में उतरने को बहुत मचलती
सूरज से दिनभर झगरती
शाम होते-होते
हाथ झटक
बेचारी को उठा लेता
रोज निर्दयी सूरज
और धूप अनमनी होकर
हर शाम
उठ कर चली जाती है
शाम धीरे-धीरे गहराती है जैसे
बच्ची रोते-रोते सो जाती है.