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इंद्र--
दम्भपूर्ण अधिकार, स्वार्थ या चिर -अबाध वासना-विलास
काल बना देवत्व-हेतु, अनियंत्रित शासन सत्ता ही
हाय! सभी दोषों की जड़ थी, भूल गए हम भी हैं दास--
चली भाग्य से लेकिन किसकी! त्रिभुवन-भर्ता विष्णु स्वयं
भाग गए भीगी बिल्ली-से, कुंठित बुद्धि वृहस्पति भी
विफल वज्र में प्राण नहीं दे पाए बन कर के पाए बन करके अक्षम,
बलि के बाणों के सम्मुख रुक गयी दिवाकर की गति भी
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