"जौहर / श्यामनारायण पाण्डेय / स्वप्न / पृष्ठ १" के अवतरणों में अंतर
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लोचनों से चू रहे अंगार थे॥ | लोचनों से चू रहे अंगार थे॥ | ||
+ | स्वप्न राणा कह रहे थे रात का, | ||
+ | लोग सुनते जा रहे थे ध्यान से। | ||
+ | एक नीरवता वहाँ थी छा रही, | ||
+ | मलिन थे सब राज – सुत – बलिदान से॥ | ||
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+ | सुन रहे थे स्वप्न की बातें सजल, | ||
+ | आग आँखों में कभी पानी कभी। | ||
+ | शांत सब बैठे हुए थे, मौन थे, | ||
+ | क्रांति मन में और कुर्बानी कभी॥ | ||
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+ | क्या कहूँ मैं नींद में था या जगा, | ||
+ | निविड़ तम था रात आधी थी गई। | ||
+ | एक विस्मय वेदना के साथ है, | ||
+ | नियति से गढ़ की परीक्षा ली गई॥ | ||
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+ | राजपूतो, इष्टदेवी दुर्ग की | ||
+ | भूख की ज्वाला लिए आई रही। | ||
+ | मलिन थी, मुख मलिन था, पट मलिन थे, | ||
+ | मलिनता ही एक क्षण छाई रही॥ | ||
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+ | देख पहले तो मुझे कुछ भय हुआ, | ||
+ | प्रश्न फिर मैंने किया तुम कौन हो, | ||
+ | क्यों मलिन हो, क्या तुम्हें दुख है कहो, | ||
+ | खोलकर मुख बोल दो, क्यों मौन हो॥ | ||
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+ | शीश के बिखरे हुए हैं केश क्यों, | ||
+ | क्यों न मुख पर खेलता मृदु हास है। | ||
+ | निकलती है ज्योति आँखों से न क्यों। | ||
+ | क्यों न तन पर विहसता मधुमास है॥ | ||
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+ | यह उदासी, वेदना यह किस लिए, | ||
+ | आँसुओं से किस लिए आँखें भरीं। | ||
+ | इस जवानी में बुढ़ौती किस लिए, | ||
+ | किस लिए तुम स्वामिनी से किंकरीं॥ | ||
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+ | कौन है जिसने सताया है तुम्हें, | ||
+ | किस भवन से तुम निकाली हो गई। | ||
+ | प्राण से भी प्रिय हृदय से भी विमल, | ||
+ | वस्तु कोई क्या कहीं पर खो गई॥ | ||
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+ | रतन के रहते सतावे दीन को | ||
+ | कौन ऐसा मेदिनी में मर्द है। | ||
+ | नाम उसका दो बता निर्भय रहो, | ||
+ | और कह दो कौन-सा दुख दर्द है॥ | ||
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+ | तुम रमा हो, हरि - विरह से पीड़िता, | ||
+ | या शिवा हो, शंभु ने है की हँसी। | ||
+ | विधि – तिरस्कृत शारदा हो या शची, | ||
+ | शयनगृह में तुम अचानक आ फँसी॥ | ||
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15:46, 21 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
आन पर जो मौत से मैदान लें,
गोलियों के लक्ष्य पर उर तान लें।
वीरसू चित्तौड़ गढ़ के वक्ष पर
जुट गए वे शत्रु के जो प्राण लें॥
म्यान में तलवार, मूँछें थी खड़ी,
दाढ़ियों के भाग दो ऐंठे हुए।
ज्योति आँखों में कटारी कमर में,
इस तरह सब वीर थे बैठे हुए॥
फूल जिनके महकते महमह मधुर
सुघर गुलदस्ते रखे थे लाल के।
मणीरतन की ज्योति भी क्या ज्योति थी
विहस मिल मिल रंग में करवाल के॥
चित्र वीरों के लटकते थे कहीं,
वीर प्रतिबिंबित कहीं तलवार में।
युद्ध की चित्रावली दीवाल पर,
वीरता थी खेलती दरबार में॥
बरछियों की तीव्र नोकों पर कहीं
शत्रुओं के शीश लटकाए गए।
बैरियों के हृदय में भाले घुसा
सामने महिपाल के लाए गए॥
कलित कोनों में रखी थीं मूर्त्तियाँ,
जो बनी थीं लाल मूँगों की अमर।
रौद्र उनके वदन पर था राजता,
हाथ में तलवार चाँदी की प्रखर॥
खिल रहे थे नील परदे द्वार पर,
मोतियों की झालरों से बन सुघर।
डाल पर गुलचाँदनी के फूल हों,
या अमित तारों भरे निशि के प्रहर॥
कमर में तलवार कर में दंड ले
संतरी प्रतिद्वार पर दो दो खड़े।
देख उनको भीति भी थी काँपती,
वस्त्र उनके थे विमल हीरों जड़े॥
संगमरमर के मनोहर मंच पर
कनक – निर्मित एक सिंहासन रहा।
दमकते पुखराज नग जो थे जड़े,
निज प्रभा से था प्रभाकर बन रहा॥
मृदुल उस पर एक आसन था बिछा,
मणिरतन के चमचमाते तार थे।
वीर राणा थे खड़े उस पर अभय,
लोचनों से चू रहे अंगार थे॥
स्वप्न राणा कह रहे थे रात का,
लोग सुनते जा रहे थे ध्यान से।
एक नीरवता वहाँ थी छा रही,
मलिन थे सब राज – सुत – बलिदान से॥
सुन रहे थे स्वप्न की बातें सजल,
आग आँखों में कभी पानी कभी।
शांत सब बैठे हुए थे, मौन थे,
क्रांति मन में और कुर्बानी कभी॥
क्या कहूँ मैं नींद में था या जगा,
निविड़ तम था रात आधी थी गई।
एक विस्मय वेदना के साथ है,
नियति से गढ़ की परीक्षा ली गई॥
राजपूतो, इष्टदेवी दुर्ग की
भूख की ज्वाला लिए आई रही।
मलिन थी, मुख मलिन था, पट मलिन थे,
मलिनता ही एक क्षण छाई रही॥
देख पहले तो मुझे कुछ भय हुआ,
प्रश्न फिर मैंने किया तुम कौन हो,
क्यों मलिन हो, क्या तुम्हें दुख है कहो,
खोलकर मुख बोल दो, क्यों मौन हो॥
शीश के बिखरे हुए हैं केश क्यों,
क्यों न मुख पर खेलता मृदु हास है।
निकलती है ज्योति आँखों से न क्यों।
क्यों न तन पर विहसता मधुमास है॥
यह उदासी, वेदना यह किस लिए,
आँसुओं से किस लिए आँखें भरीं।
इस जवानी में बुढ़ौती किस लिए,
किस लिए तुम स्वामिनी से किंकरीं॥
कौन है जिसने सताया है तुम्हें,
किस भवन से तुम निकाली हो गई।
प्राण से भी प्रिय हृदय से भी विमल,
वस्तु कोई क्या कहीं पर खो गई॥
रतन के रहते सतावे दीन को
कौन ऐसा मेदिनी में मर्द है।
नाम उसका दो बता निर्भय रहो,
और कह दो कौन-सा दुख दर्द है॥
तुम रमा हो, हरि - विरह से पीड़िता,
या शिवा हो, शंभु ने है की हँसी।
विधि – तिरस्कृत शारदा हो या शची,
शयनगृह में तुम अचानक आ फँसी॥