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"शहर जंगल / अरविन्द श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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14:35, 26 जुलाई 2011 का अवतरण

उसकी साँसे गिरबी पड़ी हैं मौत के घर
पलक झपकते किसी भी वक्त
लपलपाते छुरे का वह बन सकता है शिकार

पिछले दंगे में बच गया था वह

अभी उसने रोटी चुराई है
उसके जिस्म पर चोट के और
नीचे पत्थर पर
खून के ताजे निशान हैं
उसने गुत्थमगुत्थी-सा प्रयास छोड़ दिया है
उसकी आँखें आँसू से लबालब हैं
वह तलाश रहा है किसी मददगार को

कुछ बहशियों ने पकड़ रखा है उसे
पशु की मानिंद
उनकी मंशाएँ ठीक नहीं लगतीं

चाहता हूँ मैं उसे बचाना
पास खडे़ पुलिस की गुरेरती आँखें
देख रही हैं मुझे!