भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"माँ कभी नहीं मरती / सुरेश यादव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
  
 
माँ उठती है - मुंह अंधेरे
 
माँ उठती है - मुंह अंधेरे
 
 
इस घर की तब -
 
इस घर की तब -
 
'सुबह' उठती है
 
'सुबह' उठती है
 
 
माँ जब कभी थकती है
 
माँ जब कभी थकती है
 
 
इस घर की
 
इस घर की
 
 
शाम ढलती है
 
शाम ढलती है
 
 
पीस कर खुद को
 
पीस कर खुद को
 
 
हाथ की चक्की में
 
हाथ की चक्की में
 
 
आटा बटोरती
 
आटा बटोरती
 
 
हँस-हँस कर - माँ
 
हँस-हँस कर - माँ
 
 
हमने देखा है  
 
हमने देखा है  
 
 
जोर जोर से चलाती है मथानी
 
जोर जोर से चलाती है मथानी
 
 
खुद को मथती है - माँ
 
खुद को मथती है - माँ
 
 
और
 
और
 
 
माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
 
माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
 
 
सवालों को सुलझा लेती है
 
सवालों को सुलझा लेती है
 
 
माखन की तरह  
 
माखन की तरह  
 
 
उतार लेती है - घर भर के लिए
 
उतार लेती है - घर भर के लिए
 
 
माँ - मरने के बाद भी
 
माँ - मरने के बाद भी
 
 
कभी नहीं मरती है
 
कभी नहीं मरती है
 
 
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
 
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
 
 
पूजा की थाली का घी
 
पूजा की थाली का घी
 
 
कभी वह
 
कभी वह
 
 
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
 
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
 
 
घर के आँगन में
 
घर के आँगन में
 
 
हर सुबह
 
हर सुबह
 
 
हरसिंगार के फूलों -सी झरती है
 
हरसिंगार के फूलों -सी झरती है
 
 
माँ कभी नहीं मरती है।
 
माँ कभी नहीं मरती है।
  
  
 
</poem>
 
</poem>

10:59, 30 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


माँ उठती है - मुंह अंधेरे
इस घर की तब -
'सुबह' उठती है
माँ जब कभी थकती है
इस घर की
शाम ढलती है
पीस कर खुद को
हाथ की चक्की में
आटा बटोरती
हँस-हँस कर - माँ
हमने देखा है
जोर जोर से चलाती है मथानी
खुद को मथती है - माँ
और
माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
सवालों को सुलझा लेती है
माखन की तरह
उतार लेती है - घर भर के लिए
माँ - मरने के बाद भी
कभी नहीं मरती है
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
पूजा की थाली का घी
कभी वह
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
घर के आँगन में
हर सुबह
हरसिंगार के फूलों -सी झरती है
माँ कभी नहीं मरती है।