भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"Sushil sarna" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: '''...प्रेम के तिनकों से गुंथे घर ...''' कितनी असभ्य होती जा रही है सभ्य…)
(कोई अंतर नहीं)

18:05, 4 अगस्त 2011 का अवतरण

...प्रेम के तिनकों से गुंथे घर ...

कितनी असभ्य होती जा रही है सभ्यता हमारी धीरे धीरे दूषित होती जा रही है संस्कृति हमारी पर्दा विहीन समाज में हर रिश्ता बेपर्दा हो गया भोलापन इस देश की संस्कृति का भीड़ में न जाने कहाँ खो गया बिना अर्थ के गीतों पर हम मिलकर ताली बजाते हैं मुन्नी और शीला की गीतों पर अबोध भी ठुमकी लगाते हैं द्विअर्थी सम्वादों का लुत्फ़ हम दूरदर्शन पर सब मिलकर उठाते हैं क्या होगा इन बातों का असर शायद ये हम सभी भूल जाते हैं वक्त है अभी भी हम स्वयम को टटोलें भौतिकवादी तराजू में अपने संस्कारों का न तोलें वरना हमारे जीवनमूल्य रसातल में समा जायेंगे बिखरती आपसी बंधन के स्नेह की कड़ियों को हम न जोड़ पायेंगे दीवारों के शहर तो बहुत मिल जायेंगे मगर प्रेम के तिनकों से गुंथे घर शायद हम न ढूँढ पायेंगे

सुशील सरना 4/62,malviya nagar, jaipur sarnasushil@yahoo.com