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"लौटे बचपन! / अवनीश सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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कभी अयुध्या के बाहर मन | कभी अयुध्या के बाहर मन |
03:20, 12 अगस्त 2011 का अवतरण
कभी अयुध्या मन में बसती
कभी अयुध्या के बाहर मन
चिंताओं के मकड़जाल से
मुक्त डोलता कोमल जीवन
बचपन के तो चंद इशारे
माँ समझे या समझे बापू
जिनकी ओली ही लगती है
सबसे ऊंचा सुन्दर टापू
क्या सोना तब हीरा- मोती
क्या माने रखता सिंहासन!
कभी चाँद - तारों की बातें
कभी धूप के मोती चुनना
कभी पकड़ना अपनी छाया
अपने मन की आहट सुनना
छोटे-छोटे खेलों में भी
हो जाती थी मीठे अनबन!
चढी जवानी देखे सपने
बोझिल झुके हुए हैं कंधे
धुक-धुक-धुक-धुक जी करता है
कितने फंदे- कितने धंधे!
मन ही मन बस यह ही चाहूँ
लौटे फिर मुझमें बचपन!