भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मरा आँख का पानी / अवनीश सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान |संग्रह= }} <poem> नयी चलन के इस कैफ…) |
|||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
− | |||
नयी चलन के इस कैफे में | नयी चलन के इस कैफे में | ||
शिथिल हुयीं सब धाराएँ | शिथिल हुयीं सब धाराएँ |
16:11, 12 अगस्त 2011 का अवतरण
नयी चलन के इस कैफे में
शिथिल हुयीं सब धाराएँ
पियें-पिलायें, मौज उड़ायें
डाल हाथ में हाथ चले
देह उघारे, करें इशारे
जुड़ें-जुड़ायें नयन-गले
मदहोशी में इतना बहके
भूल गए सब सीमाएँ
झरी माथ से मादक बूँदें
सांसों में कुछ ताप चढ़ा
हौले-हौले अन्दर-बाहर
कामुकता का चाप चढ़ा
इक दूजे में इतना डूबे
टूटीं सब मर्यादाएँ
भैया मेरे, साधो मन को
अजब-गजब-सी यह धरती
थोड़ा पानी रखो बचाकर
करते क्यों ऑंखें परतीं?
जब-जब मरा आँख का पानी
आयीं तब-तब विपदाएँ