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"लोग यहाँ के! / अवनीश सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर
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जी, बड़े बतासे बातों के
साथी हैं पूनम रातों के
लोग यहाँ के!
माल ताड़ते, हाथ मारते
ऐंठ दिखाते, रौब झाड़ते
उठा-पटक से नेह जोड़ते
औ' दाँव लगाते कुश्ती के
लोग यहाँ के!
काम पड़े तो काम न आते
बात बने तो तुरत बुलाते
हेलमेल तब बहुत दिखाते
दे तड़के सोंधी बातों के
लोग यहाँ के!
फाँके में भी आँख चुराते
घायल मन पर तीर चलाते
मिल बैठे तो हँसी उड़ाते
या 'कलुआ' की लाचारी के
लोग यहाँ के!
दारू पीते, चिलम-चढाते
नाम-दाम को दौड़ लगाते
बाज़ारों में भाव आकते
'पीस' बने हैं नीलामी के
लोग यहाँ के!