भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कि तुम मुझे मिलीं / रामानन्द दोषी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
					
										
					
					| पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
कि साँस में सुहासिनी  | कि साँस में सुहासिनी  | ||
सिहर-सिमट समा रही  | सिहर-सिमट समा रही  | ||
| − | |||
कि साँस का सुहाग  | कि साँस का सुहाग  | ||
माँग में निखर उभर उठा  | माँग में निखर उभर उठा  | ||
कि गंध-युक्त केश में  | कि गंध-युक्त केश में  | ||
बाधा पवन सिहर उठा  | बाधा पवन सिहर उठा  | ||
| − | |||
कि प्यार-पीर में विभौर  | कि प्यार-पीर में विभौर  | ||
बन चली कली सुमन    | बन चली कली सुमन    | ||
16:05, 13 अगस्त 2011 के समय का अवतरण
कि तुम मुझे मिलीं
मिला विहान को नया सृजन
कि दीप को प्रकाश-रेख
चाँद को नई किरन ।
कि स्वप्न-सेज साँवरी
सरस सलज सजा रही
कि साँस में सुहासिनी
सिहर-सिमट समा रही
कि साँस का सुहाग
माँग में निखर उभर उठा
कि गंध-युक्त केश में
बाधा पवन सिहर उठा
कि प्यार-पीर में विभौर
बन चली कली सुमन 
कि तुम मुझे मिलीं
मिला विहान को नया सृजन ।
कि प्राण पाँव में भरो
भरो प्रवाह राह में
कि आस में उछाह सम
बसो सजीव चाह में
कि रोम-रोम रम रहो
सरोज में सुबास-सी
कि नैन कोर छुप रहो
असीम रूप प्यास-सी
अबाध अंग-अंग में
उफान बन उठो सजनि 
कि तुम मुझे मिलीं
मिला विहान को नया सृजन ।
	
	