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साँचा:KKPoemOfTheWeek

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<div style="font-size:15px; font-weight:bold">सप्ताह की कविता</div>
<div style="font-size:15px;">'''शीर्षक : अघोषित उलगुलान अच्‍छे बच्‍चे ('''रचनाकार:''' [[अनुज लुगुन नरेश सक्‍सेना ]])</div>
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</tr>
</table><pre style="text-align:left;overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
अघोषित उलगुलान (अघोषित आंदोलन)अच्‍छे बच्‍चे
अल सुबह दान्डू का काफ़िलारुख़ करता है शहर की ओरकुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैंवे गेंद और साँझ ढले वापस आता हैग़ुब्बारे नहीं मांगतेपरिन्दों के झुण्ड-सा,मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करतेऔर मचलते तो हैं ही नहीं
अजनबीयत लिए शुरू होता है दिनबड़ों का कहना मानते हैंऔर कटती है रातवे छोटों का भी कहना मानते हैंअधूरे सनसनीखेज क़िस्सों के साथकंक्रीट से दबी पगडंडी की तरहदबी रह जाती हैजीवन की पदचापबिल्कुल मौन !इतने अच्छे होते हैं
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंतइतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हमज़हर-बुझे तीर सेऔर मिलते हीया खेलते थेरक्त-रंजित होलीअपने स्वत्व की आँच सेखेलते उन्हें ले आते हैं शहर केघरकंक्रीटीय जंगल मेंअक्सरजीवन बचाने का खेलतीस रुपये महीने और खाने पर।
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
 
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ़
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ़
गुफ़ाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ़
 
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद ।
 
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता
 
बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिन्दू’ या 'ईसाई’ हो जाने की
 
यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
 
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
 
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल ।
 
दान्डू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में ।
</pre></center></div>
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