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पंक्ति 56: |
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| है आहार, विहार, वैभव कहीं; संहार होता कहीं। | | है आहार, विहार, वैभव कहीं; संहार होता कहीं। |
| है अत्यन्त अकल्पनीय भव की क्रीड़ामयी कल्पना॥7॥ | | है अत्यन्त अकल्पनीय भव की क्रीड़ामयी कल्पना॥7॥ |
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− | (2)
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− | दिव्य दशमूर्ति
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− | गीत
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− | जय-जय जयति लोक-ललाम,
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− | सकल मंगल-धाम।
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− | भरत भू को देख अभिनव भाव से अभिभूत।
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− | राममोहन रूप धर भ्रम-निधन-रत अविराम॥1॥
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− | विविध नवल विचार-विचलित युवक-दल अवलोक।
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− | रामकृष्ण स्वरूप में अवतरित बन विश्राम॥2॥
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− | विपुल आकुल बाल-विधवा बहु विलाप विलोक।
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− | विदित ईश्वरचन्द्र वपु धर स्ववश-कृत विधि वाम॥3॥
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− | वेद-विहित प्रथित सनातन-पंथ मथित विचार।
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− | दयानन्द शरीर धर शासन-निरत वसु याम॥4॥
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− | पतन-प्राय समाज-शोधन की बताई नीति।
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− | विहर रानाडे-हृदय में विदित कर परिणाम॥5॥
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− | एक सत्ता मंत्र से दी धर्म्म को ध्रुव शक्ति।
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− | रामतीर्थ स्वरूप धर उर-हार कर हरि-नाम॥6॥
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− | दलित वंचित व्यथित महि में की अचिन्तित क्रान्ति।
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− | बाल-गंगाधर तिलक बनकर अलौकिक काम॥7॥
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− | राजनीति-विधन की विधि-हीनता की हीन।
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− | गोखले गौरवित तन धर विरच सित मति श्याम॥8॥
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− | तिमिर-पूरित भरत-भू में ज्योति भर दी भूरि।
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− | मदनमोहन मूर्ति धर बनकर भुवन-अभिराम॥9॥
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− | विविध बाधा मुक्ति-पथ की शमन की रह शान्त।
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− | मंजु मोहन-चन्द में रम कर विहित संग्राम॥10॥
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− | मातृ-महि-हित-रत क हर हृदय कुत्सित भाव।
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− | द्रवित उर 'हरिऔध' गुंफित दिव्य जन गुणग्राम॥11॥
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− | शार्दूल-विक्रीडित
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− | नाना कार्य-विधायिनी निपुणता नीतिज्ञता विज्ञता।
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− | न्यारी जाति-हितैषिता सबलता निर्भीकता दक्षता।
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− | सच्ची सज्जनता स्वधर्म-मतिता स्वच्छन्दता सत्यता।
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− | दिव्यों की दर्शमूर्ति देश-जन को देती रहे दिव्यता॥12॥
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− | (3)
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− | कामना
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− | गीत
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− | विधि-विधन हो मधुमय मृदुल मनोहर।
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− | आलोकित हो लोक अधिकतर
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− | हो काल विपुल अनुकूल सकल कलि-मल टले॥1॥
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− | विमल विचार-विवेक-वलित हो मानस।
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− | पाये तेज दलित हो तामस।
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− | मंजुल-तम ज्ञान-प्रदीप हृदय-तल में बले॥2॥
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− | हो सजीवता सर्व जनों में संचित।
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− | क न कोमल प्रकृति प्रवंचित।
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− | भावे भावुकता भूति भाव होवें भले॥3॥
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− | कर न सके भयभीत किसी को भावी।
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− | साहस बने सुधारस-स्रावी।
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− | दिखलावे सबल समोद दुखित दल दुख दले॥4॥
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− |
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− | मद-रज से हों मानस-मुकुर न मैले।
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− | बंधु-भाव वसुधा में फैले।
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− | मानवता का कर दलन न दानवता खले॥5॥
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− | मर्म हृदय का हृदयवान् जन जाने।
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− | ममता पर ममता पहचाने।
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− | बन धर्म धुरंधर लोक-कर्म-पथ पर चले॥6॥
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− |
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− | जगा जीवनी-ज्योति जातियाँ जागें।
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− | अनुरंजन-रत हो अनुरागें।
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− | भव-हित-पलने में देश-प्रेम प्रिय शिशु पले॥7॥
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− | विपुल विनोदित बने सुखित हो पावे।
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− | सुर-वांछित वैभव अपनावे।
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− | पहुँचे पुनीत तम सुजन देव-पादप-तले॥8॥
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− | द्रवित मोम सम पवि मानस हो जावे।
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− | कूटनीति तृण-राशि जलावे।
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− | होवे हित-पावक प्रखर प्रेम-पंखा झले॥9॥
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− | छिले न कोई उर न क्षोभ छू जावे।
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− | शान्ति-छटा छिटकी दिखलावे।
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− | छल करके कोई छली न क्षिति-तल को छले॥10॥
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− |
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− | सब विभेद तज भेद-साधना जाने।
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− | महामंत्र भव-हित को माने।
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− | अभिमत फल पाकर साधक जन फूले-फले॥11॥
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− |
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− | शिखरिणी
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− | दिवा-स्वामी होवे रुचिर रुचिकारी दिवस हो।
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− | दिशाएँ दिव्या हों सरस सुखदायी समय हो।
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− | मयंकाभा होवे सित-तम महा मंजु रजनी।
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− | सुधा की धारा से धुल-धुल धरा हो धवलिता॥12॥
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− |
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− | भले भावों से हो भरित भव भावी सबलता।
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− | स्वभावों को भावें भुवन-भयहारी सदयता।
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− | सदाचारों द्वारा सफलित बने चित्त-शुचिता।
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− | सुधारों में होवे सुरसरि-सुधा-सी सरसता॥13॥
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− | (4)
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− | उमंग-भ युवक
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− | गीत
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− | हैं भूतल-परिचालक प्रतिपालक ए।
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− | तोयधि-तुंग-तरंग युवक-उमंग-भरे॥1॥
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− |
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− | हैं भव-जन-भय भंजन मन-रंजन ए।
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− | बंधन-मोचन-हेतु अवनि में अवतरे॥2॥
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− |
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− | हैं अनुपम यश-अंकित अकलंकित ए।
| |
− | लोक अलौकिक लाल मराल विरद वरे॥3॥
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− |
| |
− | हैं दानव-दल-दण्डन खल-खंडन ए।
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− | अरि-कुल-कंठ-कुठार अकुंठित व्रत धरे॥4॥
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− |
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− | हैं नर-पुंगव नागर सुखसागर ए।
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− | मनुज-वंश-अवतंस सरस रुचि सिर-धरे॥5॥
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− |
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− | हैं जनता-संजीवन जग-जीवन ए।
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− | पीड़ित-जन-परिताप-तप्त पथ पौसरे॥6॥
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− |
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− | हैं समाज-सुख-साधक दुख-बाधक ए।
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− | देश-प्रेम-प्रासाद प्रभावित फरहरे ॥7॥
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− |
| |
− | हैं नवयुग-अधि प्रिय पायक ए।
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− | वसुधा-विजयी वीर विजय-प्रद पैंतरे॥8॥
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− | हैं सुविचार-प्रचारक परिचारक ए।
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− | सब सुधार-आधार-धरा-पादक हरे॥9॥
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− |
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− | हैं पविता-परिचायक शित शायक ए।
| |
− | सब पदार्थ-सर्वस्व स्वार्थ-परता परे॥10॥
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− | वंशस्थ
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− | सदैव होवें समयानुगामिनी।
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− | प्रसादिनी मानवतावलम्बिनी।
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− | गरीयसी, गौरविता, महीयसी।
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− | यवीयसी हो युवक-प्रवृत्तियाँ॥11॥
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− |
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− | प्रफुल्ल हों, पीवर हो, प्रवीर हों।
| |
− | प्रवीण हों, पावन हो, प्रबुध्द हों।
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− | विनीत हों, वत्सलता-विभूति हों।
| |
− | वसुंधरा-वैभव बाल-वृन्द हों॥12॥
| |
− |
| |
− | वसंत-तिलका
| |
− |
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− | भूलोक-भूति भवसिध्दि-मयी मनोज्ञा।
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− | सारी धरा-विजयिनी कल-कीत्ति कान्ता।
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− | सम्पत्तिदा जन-विपत्ति-विनाश-मूर्ति।
| |
− | होवे पुनीत प्रतिपत्ति युवा जनों की॥13॥
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− |
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− | धीरा प्रशान्त अति कान्त नितान्त दिव्या।
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− | हिंसा-विहीन सरसा भव-वांछनीया।
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− | संसार-शान्ति अवनी नवनी समाना।
| |
− | हो पूत-भाव-जननी जनताभिलाषा॥14॥
| |
− |
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− | हो उक्ति मंजु अनुरक्ति प्रवृत्ति पूत।
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− | आसक्ति उच्च भव-भक्ति-विरक्ति-हीन।
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− | बाधामयी विषमता क्षमता-विनाशी।
| |
− | हो सिध्द-भूत समता ममता युवा की॥15॥
| |
− |
| |
− | भूले न लोक-हित मंत्र-मदांध हो के।
| |
− | पी के प्रसाद-मदिरा न बने प्रमादी।
| |
− | पाके महान पद मानवता न खोवे।
| |
− | होवे न मत्त बहु मान मिले मनस्वी॥16॥
| |
− |
| |
− | दे दे विभा विहित नीति विभावरी को।
| |
− | पाले कुमोदक-समान प्रजाजनों को।
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− | सींचे सुधा बरस के अरसा रसा को।
| |
− | सच्चा सुधाधर बने वसुधाधिकारी॥17॥
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− | (5)
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− | भारत-भूतल
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− |
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− | शिखरिणी
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− |
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− | सिता-सी साधें हो सुकथन सुधा से मधुर हो।
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− | अछूते भावों से भर-भर बने भव्य प्रतिभा।
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− | रसों से सिक्ता हो पुलकित क सूक्ति सबको।
| |
− | विचारों की धारा सरस सरि-धारा-सदृश हो॥1॥
| |
− | गीत
| |
− | जय भव-वंदित भारत-भूतल।
| |
− | शिर पर शोभित कलित क्रीट सम विलसित अचल हिमाचल॥1॥
| |
− |
| |
− | कंठ-लग्न मुक्ता-माला-इव मंजुल सुर-सरि-धारा।
| |
− | होता है विधौत पग पावन पूत पयोनिधि द्वारा॥2॥
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− |
| |
− | मणि-गण-मंडित कान्त कलेवर तरु कोमल दल श्यामल।
| |
− | सुधा-भरित नाना फल-संकुल सफलीकृत वसुधातल॥3॥
| |
− |
| |
− | मधु-विकास-विकसित बहु सरसित शरद सितासित सुन्दर।
| |
− | सुरभित मलय-समीर-सुसेवित सुखनिधि मंजुल मंदर॥4॥
| |
− |
| |
− | नव-नव उषा-राग-आरंजित मन-रंजन घन-माली।
| |
− | राका रजनी आयोजन रत लोकोत्तर छविशाली॥5॥
| |
− |
| |
− | रुचिर पुरन्दर-चाप-विभूषित तारक-माला-सज्जित।
| |
− | रविकर-निकर-कलित-आलोकित चन्द्र-चारुता-मज्जित॥6॥
| |
− |
| |
− | नंदन-वन-समान उपवन-मय चन्दन-तरु-चयधारी।
| |
− | लोक ललित लतिका कर-लालित ललामता अधिकारी॥7॥
| |
− |
| |
− | खग-कुल-कलरव-कान्त कोकिला-आकुल-नाद-अलंकृत।
| |
− | मुग्धकरी कुसुमावलि-पूरित अलि-झंकार-सुझंकृत॥8॥
| |
− |
| |
− | मनभावन महान महिमामय पावन पद-परिचायक।
| |
− | सुरपुर-सम सम्पन्न दिव्य-तम सप्तपुरी-अधिनायक॥9॥
| |
− |
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− | सकल अमंगल-मूल-निकंदन भव-जन-मंगलकारी।
| |
− | प्रेम-निलय 'हरिऔध' मधुर-तम मानस-सदन-विहारी॥10॥
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− |
| |
− | द्रुतविलम्बित
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− |
| |
− | वृषभ-वाहन है शशि-मौलि है।
| |
− | वर-विभूति-विराजित गात है।
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− | सुर-तरंगिणि है शिर-मालिका।
| |
− | भरत-भूतल ही भव-मूर्ति है॥11॥
| |
− |
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− | सतत है अवनीतल-रंजिनी।
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− | कमल-लोचन की कमनीयता।
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− | भुवन-मोहन है तन-श्यामता।
| |
− | भरत-भूमि रमापति-मूर्ति है॥12॥
| |
− |
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− | मलिन लोचन की मल-मूलता।
| |
− | विविध मायिकता मनुजात की।
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− | हरण है करती मद-अंधता।
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− | भरत-भूतल-श्याम-स्वरूपता॥13॥
| |
− |
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− | वसंत-तिलका
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− |
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− | है हंसवाहन चतुर्मुख चारु-मूर्ति।
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− | है वेद-वैभव-विकासक बुध्दि-दाता।
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− | सत्कर्म-धाम कमलासनताधिकारी।
| |
− | नाना विधन-रत भारत है विधाता॥14॥
| |
− | वंशस्थ
| |
− | रमा समा है रमणीयता मिले।
| |
− | उमा समा है वन-सिंह-वाहना।
| |
− | गिरा समा है प्रतिभा-विभूषिता।
| |
− | विचित्र है भारत की वसुंधरा॥15॥
| |
− | (6)
| |
− | भारतीय महत्ता
| |
− |
| |
− | शार्दूल-विक्रीडित
| |
− | है आराधक सर्वभूत-हित का आधार सद्वृत्तिका।
| |
− | व्याख्याता भव-मुक्ति-भुक्ति-पथ का त्राता सदासक्ति का।
| |
− | पाता है जन पूत भाव निधिक का दाता महामंत्र का।
| |
− | ज्ञाता भारत है समस्त मत का धाता धराधर्म का॥1॥
| |
− | गीत
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− |
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− | भारत है भव-विभव-विधाता।
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− | उसका गौरव-गीत प्रगति पा वसुधा-तल है गाता॥1॥
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− |
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− | किसके पलने में पल पहले हुई प्रकृति-कृति पुलकित।
| |
− | किसका ललित विकास विलोके हुई लोक-रुचि ललकित॥2॥
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− |
| |
− | मानस-तम तमारि बन पाया किसका मुख आलोकित।
| |
− | पा किसका आलोक हो सका लोक-लोक आलोकित॥3॥
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− |
| |
− | किसके प्रथम प्रभात में हुआ भूतल भूति-विभासित।
| |
− | किसने बन सित भानु-सिता से की समस्त वसुधा सित॥4॥
| |
− |
| |
− | किसके आदिम तम उपवन में वह कुसुमाकर आया।
| |
− | जिसने भू को कुसुमित, सुरभित, सफलित, सरस बनाया॥5॥
| |
− |
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− | हुआ कहाँ पर साम-गान वह जिसने सुधा बहाई।
| |
− | जिसकी स्वर-लहरी सुरपुर में लहराती दिखलाई॥6॥
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− |
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− | बजी कहाँ वह मंजुल वीणा जो जगती में गूँजी।
| |
− | जिसकी व्यंजक ध्वनि बन पाई धरा-धर्म की पूँजी॥7॥
| |
− |
| |
− | किसकी कुंजों में मुरली का वह मृदु नाद सुनाया।
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− | जिसने जगत-विजित जीवों पर जीवन-रस बरसाया॥8॥
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− |
| |
− | कौन है हृदय-तिमिर-विमोचन अंधा-विलोचन-अंजन।
| |
− | सुख-सुमेरु का शिखर मनोहर, जन-मानस-अनुरंजन॥9॥
| |
− |
| |
− | सिध्दि सकल का सुन्दर साधन, विमल विभूति-सहारा।
| |
− | भारत है 'हरिऔध' ज्ञान-नभ-तल-उज्ज्वलतम तारा॥10॥
| |
− |
| |
− | वसन्त-तिलका
| |
− | आलोक-दान-रत भारत है प्रभात।
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− | संसार-मानसर-जात प्रफुल्ल पद्म । है मंजु-भाव-गगनांगण का मंयक
| |
− | आनन्द-मंदिर-मनोज्ञ-मणि-प्रदीप॥11॥
| |
− | शार्दूल-विक्रीडित
| |
− | माता है मृदु भाव की, मनुजता की है महा साधना।
| |
− | पाता है भव-शान्ति की सरलता की सिध्दि-भूता सुधा।
| |
− | है आधार विभूति की, सुहृदता-राका-निशा-चंद्रिका।
| |
− | सद्भावामृत सिंचिता श्रुति-रता है भारती सभ्यता॥12॥
| |
− |
| |
− | छाया था जब अंधकार भव में, संसार था सुप्त सा।
| |
− | ज्ञानालोक-विहीन ओक सब था, विज्ञान था गर्भ में।
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− |
| |
− | ऐसे अद्भुत काल में प्रथम ही जो ज्योति उद्भूत हो।
| |
− | ज्योतिर्मान बना सकी जगत को है वेद-विद्या वही॥13॥
| |
− |
| |
− | नाना देश अनेक पंथ मत में है धर्म-धारा बही।
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− | फैली है समयानुसार जितनी सद्वृत्तिक संसार में।
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− | देखे वे बहु पूत भाव जिनसे भू में भरी भव्यता।
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− | सोचा तो सब सार्वभौम हित के सर्वस्व हैं वेद ही॥14॥
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− |
| |
− | मूसा की वह दिव्य ज्योति जिसमें है दिव्यता सत्य की।
| |
− | सच्चिन्ता जरदस्त की सदयता उद्बुध्दता बुध्द की।
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− | ईसा की महती महानुभवता पैगम्बरी विज्ञता।
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− | पाती है विभुता-विभूति जिससे है वेद-सत्ता वही॥15॥
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− |
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− | नाना धर्म-विधन के विलसते उद्यान देखे गये।
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− | फूले थे जितने प्रसून उनमें स्वर्गीय सद्भाव के।
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− | फैली थी जितनी सुनीति-लतिका, थे बोध-पौधे लसे।
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− | जाँचा तो श्रुतिसार-सूक्ति-रस से थे सिक्त होते सभी॥16॥
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− |
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− | देख ग्रंथ समस्त पंथ मत के, सिध्दान्त-बातें सुनीं।
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− | नाना वाद-विवाद-पुस्तक पढ़ी, संवाद वादी बने।
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− | जाँची तर्क-वितर्क-नीति-शुचिता, त्यागा कुतर्कादि को।
| |
− | तो जाना सर्वज्ञता जगत की है वेद-भेदज्ञता॥17॥
| |
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