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"रेत हो गए लोग / रवि प्रकाश" के अवतरणों में अंतर

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00:59, 23 अगस्त 2011 का अवतरण

एक दिन पा लेना है तुम्हें

पीपल कि कोपलों पे पड़ती

पीली धूप कि तरह !

गेंहू कि किसलाई बालियों में

दूध कि तरह!

अभी तुम मेरे लिए

मुट्ठी में बंद रेत कि तरह हो

भुरभुराती हुई !


मेरे घर से एक पकडंदी

नदी कि तरफ जाती है

वो नदी सुखी हुई है,

यहाँ सिर्फ रेत ही रेत है!

कुत्ते मरे हुए जानवरों को नोच रहे है,

बच्चे जली लाशों के राख के ढेर में

कुछ खोज रहें है

कैसा खेल खेल रहे हैं वे ?


वो दूर बबूल के ढेरों पेड़

बंजर और कटीले हो चुके हैं!

इस नदी की पंखो पे उड़ने वाली नावे

आधी रेत में धस चुकी हैं ,

और पतवार कहीं खो गई है !


लेकिन मेरी स्मृतियों में कहीं,

अभी भी

नदी का बहाव बसा हुआ है

बगदाद की तरह !

फैले पंखों पे उड़ती नावे बसी हैं

पानी पे छपकते बच्चों की तरह!


नदी तुम

हिमालय की गोंद में क्यों चुप गई हो ?

तुम्हारी गोंद में बसे लोग

रेत हो गए हैं

उन्हें पाना, तुम्हें फिर से

फिर -फिर से ,

सागर की तरफ जाते हुए

देखना है